अंतरिक्ष में बस्तियां दूर का सपना
२३ नवम्बर २००९"यह टोरेस है-- वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की इस टीम की एक अवधारणा. उनका विश्वास है कि उनकी कल्पना की विशाल बस्ती सन 2000 से पहले बन सकती है," साढ़े तीन दशक पहले की उस फिल्म में बड़े गर्व के साथ घोषित किया गया था.
यह बस्ती अभी अगले कई दशकों तक एक सपना ही रहेगी. वह सौ एकड़ बड़ी होती. दस हज़ार लोग रहते. पृथ्वी जैसा परिवेश होता. पृथ्वी जैसा गुरुत्वाकर्षण होता....
अमेरिका का नया सपना
2004 में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर ने ऐसे ही एक नये सपने की घोषणा कीः
"सौरमंडल में मानवीय उपस्थिति की मैं आज एक नयी योजना की घोषणा करता हूं. चंद्रमा पर भावी मानवीय खोजों की तैयारी के लिए, 2008 से पहले ही, हम रॉबोट यंत्रों वाले मिशनों की एक कड़ी वहां उतारना शुरू करेंगे."
इस योजना के अनुसार अमेरिका 2017 से पहले एक बार फिर चंद्रमा पर लौटेगा. चंद्रमा पर मनुष्य के पहले पैर पड़ने को इस बीच 40 वर्ष बीत गये हैं, पर वहां कोई बस्ती तो क्या, छोटा-सा वैज्ञानिक स्टेशन तक नहीं बन पाया है. जर्मनी के काइज़र्सलाउटर्न शहर में कुछ समय पहले अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष एजेंसियों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ. चर्चा का एक प्रमुख विषय यही रहा कि चंद्रमा और मंगल ग्रह पर रहने और काम करने की सबसे बड़ी चुनौतियां क्या हैं?
चुनौतियां क्या हैं?
जर्मन अंतरिक्ष अधिकरण डीएलआर के प्रमुख योहान-डीट्रिश व्यौर्नर का कहना था, "चंद्रमा की अब भी उतनी खोज नहीं हुई है, जितना हम समझते हैं." चंद्रमा को ही बाद में मंगल ग्रह पर रहने-पहुंचने और दूर अंतरिक्ष में जाने की तैयारियों का अड्डा बनना है. लेकिन, समस्या यह है कि उस के पास न तो अपना कोई वायुमंडल है और न ही चुंबकीय क्षेत्र. सौर आंधियों वाले अयनों और ब्रह्मांडीय किरणों की ही नहीं, हर तरह की उल्काओं की भी निर्बाध बौछार होती रहती है. उल्काएं किसी भी बस्ती को तहस-नहस कर सकती हैं. ब्रहमांडीय विकिरण कैंसर की संभावना को बहुत बढ़ा देता है.
चंद्रमा के तापमान में भारी उतार-चढ़ाव भी कम टेढ़ी खीर नहीं है. दिन में वह शून्य से 150 डिग्री सेल्ज़ियस ऊपर और रात में 130 डिग्री सेल्ज़ियस नीचे चला जाता है-- कुल मिला कर 280 डिग्री तक ऊपर-नीचे. दिन और रात पृथ्वी पर के साढ़े 28 दिनों के बराबर हैं. लंबी रातों के दौरान सौर ऊर्जा से बिजली बनाना संभव नहीं होगा.
चंद्रमा की मिट्टी भी ख़तरनाक़
काइज़र्सलाउटर्न में आये वैज्ञानिकों का कहना था कि चंद्रमा पर की मिट्टी भी एक बड़ी समस्या है. वह बहुत ही महीन और नुकीले कणों की बनी है. यह मिट्टी न केवल हर चीज़ को खरोंच डालती है, सांस के रास्ते से शरीर के भीतर पहुंचने पर फेफड़ों को बहुत नुकसान भी पहुंचा सकती है. वहां कार्बन और नाइट्रोजन जैसे हल्के तत्वों की भी भारी कमी है, हालांकि हीलियम-3 काफ़ी मात्रा में है, जो रेडियोधर्मी नहीं है और परमाणु संलयन रिएक्टरों में काम आ सकता है.
दूसरी ओर मंगल ग्रह पृथ्वी से इतना दूर है कि वहां पहुंचने में ही छह महीने लग जायेंगे. उसके पतले वायुमंडल में मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड है. यदि पानी है भी तो तापमान बहुत ही कम होने के कारण केवल बर्फ के रूप में हो सकता है.
मंगल तो और भी अमंगल
मंगल ग्रह सूर्य से भी इतना दूर है कि वहां पृथ्वी की तुलना में केवल आधी धूप पहुंचती है. जर्मन खगोलविद प्रो. हाराल्ड लेश कहते हैं कि वहां लंबे समय तक जीवित बचना बहुत मुश्किल होगा:
"मंगल ग्रह का कोई चुंबकीय क्षेत्र नहीं है. जब हम वहां पहुंचेंगे, तो उदाहरण के लिए सूर्य से आ रहे विकिरण की हमारे ऊपर बंबारी होने लगेगी. इससे शरीर की कोषिकाएं क्षतिग्रस्त होंगी. उन में म्यूटेशन यानी उत्परिवर्तन हो सकता है, यानी कैंसर पैदा होगा. इस कारण मंगल की यात्रा पर उन्हीं लोगों को भेजा जा सकता है, जो 55 साल से ऊपर के हैं. युवा लोगों के मामले में यह म्यूटेशन इतना अधिक हो सकता है कि उन्हें भेजना ठीक नहीं रहेगा."
मंगल ग्रह पर आने-जाने में क़रीब दो साल लग जायेंगे. इस लंबे प्रवास और एकांतवास का अंतरिक्षयात्रियों के मानसिक संतुलन पर भी घातक प्रभाव पड़ सकता है. कुछ वैज्ञानिक तो यहां तक कहते हैं कि प्रकृति ने मनुष्य को लंबे समय तक अंतिरक्ष में रहने लायक बानया ही नहीं है.
रिपोर्ट- राम यादव
संपादन- उज्ज्वल भट्टाचार्य