अरब जगत की क्रांति से ही इस्लामिक सुनहरे दौर की वापसी
१९ अगस्त २०११मिस्र के रसायनशास्त्री अहमद जेवायल ने काहिरा में तकरीबन 2 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत से एक विज्ञान और तकनीकी संस्थान बनाने का प्रस्ताव रखा था. नौकरशाही के चक्करों में संस्थान को बनाने का काम रोक दिया गया. अब मिस्र की सत्ता संभाल रही सैन्य परिषद ने इसे बनाने का काम शुरू करने की मंजूरी दे दी है. जानकार इसे अरब जगत के बदलते हालात में एक सकारात्मक बदलाव के रूप में देख रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि इस तरह के कदम आठवीं से तेरहवीं सदी के बीच के सुनहरे इस्लामिक दौर को वापस ले आएंगे.
वर्षों का इंतजार
12 साल पहले जब जेवायल ने अपना प्रस्ताव सरकार के सामने रखा तब देश के राष्ट्रपति रहे हुस्नी मुबारक ने उनके प्रस्ताव को मंजूरी दी. नोबेल पुरस्कार जीत कर आए जवायल को इसके साथ ही मिस्र के सर्वोच्च सम्मान ऑर्डर ऑफ नील से भी सम्मानित किया गया. महीने भर के भीतर ही तकनीकी संस्थान का शिलान्यास भी कर दिया गया. इसके बाद जेवायल कुछ सम्मान और उपाधियां लेने विदेश के दौरे पर थे तभी उनका प्रोजेक्ट नौकरशाही और भ्रष्टाचार के चक्कर में उलझ गया. इसके बाद मिस्र में हुए सरकार विरोधी प्रदर्शनों के दौर में उनकी लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ और उन्हें संभावित राष्ट्रपति के रूप में देखा जाने लगा. उनकी लोकप्रियता से घबराए अधिकारियों ने संस्थान का निर्माण शुरू न हो इसके लिए हर संभव कोशिश की. जेवायल के मुताबिक उनकी बात कोई नहीं सुन रहा था.
मध्य पूर्व के दूसरे देशों में क्रांति की लहर फैली तो मिस्र के सैन्य परिषद और अंतरिम सरकार ने उनके प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी. जेवायल के समर्थक इसे आधुनिक मध्य पूर्व की दिशा में एक बड़ा कदम मान रहे हैं. मिस्र की मानसूरा यूनिवर्सिटी में यूरोलॉजी के प्रोफेसर मोहम्मद अहमद गोनाइम इस फैसले पर संतोष जाहिर करते हुए कहते हैं, "पुरानी सरकार में कुछ लोग डॉ जेवायल को मिल रही प्रमुखता से खुश नहीं थे, लेकिन अब फैसला करने वाले लोगों में बदलाव आया है. यह फैसला एक इंजन है जो वैज्ञानिक रिसर्च की ट्रेन को इस देश में आगे ले जाएगा."
विज्ञान की बुरी दशा
मध्य पूर्व में खासतौर से अरब देशों में विज्ञान की खराब स्थिति को कुछ आंकड़ों से भी समझा जा सकता है. इन देशों के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का महज 0.2 फीसदी वैज्ञानिक शोधों पर खर्च होता है जबकि दुनिया के लिए यह औसत 1.2 फीसदी है. दुनिया के 500 बेहतरीन विश्वविद्यालयों में अरब का शायद ही कोई विश्वविद्यालय शामिल है. अरब जगत के वैज्ञानिक मान रहे हैं कि इस क्षेत्र में बदलाव की दिशा में पहला कदम उठा लिया गया है.
हाल ही में की गई थॉमसन रॉयटर्स ग्लोबल रिसर्च की रिपोर्ट बताती है कि अरब मध्य पूर्व, तुर्की और ईरान ने 2000 से 2009 के बीच वैज्ञानिक शोध पत्रों में दुगुने का इजाफा किया है. ये बदलाव बहुत नीचे से शुरू हुए पहले जहां दुनिया भर के वैज्ञानिक शोधों का महज 2 फीसदी इन देशों में होता था अब वही एक दशक भर में बढ़ कर 4 फीसदी तक जा पहुंचा है. ये फर्क ज्यादा बड़ा नहीं है लेकिन संतोष इस बात का है कि सकारात्मक दिशा में बदलाव हो रहा है.
इस्लामिक सुनहरा दौर
कई तरीकों से अरब अपने सुनहरे अतीत की ओर वापसी की कोशिश करता दिख रहा है. 8वीं और 13वीं शताब्दी के बीच के कथित सुनहरे दौर में ये इलाका विज्ञान के लिहाज से काफी ऊंचाई पर था. उस वक्त बेहतरीन वैज्ञानिक दिमाग बगदाद, काहिरा और कॉर्दोबा में काम कर रहे थे. कॉर्दोबा तब मुस्लिम स्पेन का हिस्सा था. मुस्लिम गणितज्ञों ने अल्जेब्रा यानी बीजगणित की खोज की और खगोलविदों ने आसमान का नक्शा खींचा. इस दौर में इस इलाके के अस्पताल इतने आधुनिक थे कि कैनन ऑफ मेडिसिन का लैटिन अनुवाद यूरोपीय विश्वविद्यालयों की सबसे अच्छी किताब मानी जाती थी. ये किताब फारसी फीजिशियन और तर्कशास्त्री इब्न सिना ने 1025 में लिखी थी. इब्न सिना पश्चिमी देशों में एविसिना के नाम से मशहूर हैं.
17वीं सदी की शुरुआत में वैज्ञानिक क्रांति ने यूरोप को मध्य पूर्व से आगे ला खढ़ा किया. ओटोमन साम्राज्य के शासक इस दौर में यूरोप से पीछे रह गए या फिर उन्होंने आगे बढ़ना ही नहीं चाहा. इसके पीछे एक वजह 13वीं सदी में मंगोलों के आक्रमण की भी दी जाती है जिसके बाद बीसवीं सदी तक पूरा क्षेत्र औपनिवेशिक शोषण का शिकार हुआ. आर्थिक इतिहासकार कहते हैं 15वीं और 16वीं सदी में यूरोप समुद्री ताकत के रूप में उभरा जिसने इसके कारोबार का ध्यान समुद्री रास्तों की ओर मोड़ दिया. इस घटना ने जमीन के रास्ते होने वाले कारोबार मध्यपूर्व के कारोबार को बहुत ज्यादा प्रभावित किया. हालांकि इसके अलावा एक सिद्धांत और भी है जो इन सब के लिए इस्लाम को दोषी मानता है.
इस्लाम की भूमिका
मुस्लिम जगत में विज्ञान की राह में इस्लाम सबसे बड़ी बाधा नहीं थी लेकिन उसने राहों को सीमित जरूर किया. कुरान की बातों को काटने वाले विचारों को शंका की नजर से देखा गया और कई बार तो धार्मिक सत्ताओं ने इन्हें सिरे से खारिज भी किया. कई मुस्लिम तो कुरान का सहारा लेकर जीव उत्पत्ति के सिद्धांत को भी नकारते हैं ठीक वैसे ही जैसे कट्टरपंथी इसाई बाइबिल के सहारे डार्विन के सिद्धांत को ठुकराते हैं.
जॉर्डन के हाशमित यूनिवर्सिटी की मॉलेक्यूलर बायोलॉजिस्ट राणा दजानी पूरी तरह से मुस्लिमपरस्त है सिर ढंक कर रखती हैं. वो बताती हैं कि जॉर्डन के छात्र जानवरों की प्रजातियों में उत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं लेकिन ये मानने से इंकार करते हैं कि इंसान और बंदर के पूर्वज एक थे. उनकी प्रमुख आपत्ति ये है कि कुरान में कहा गया है कि इंसान सर्वोच्च है और इसे अस्वीकार करना ईशनिंदा के दायरे में आएगा.
रमजान का महीना शुरू होने के बारे में खगोलविदों को विरोध का सामना करना पड़ता है जब चांद की स्थिति को वो अपनी गणना के मुताबिक ज्यादा भरोसेमंद तरीके से लोगों के सामने रखते हैं. पारंपरिक रूप से मुस्लिम रोजे रखना तब शुरु करते हैं जब वो महीने की शुरुआत में पहले चांद को खुद अपनी नंगी आंखों से देखते हैं. पर इसका नतीजा ये होता है कि कुछ मुस्लिम देशों में दूसरे की तुलना में रमजान देर से शुरू होता है क्योंकि बादलों की वजह से लोगों को चांद नजह नहीं आता.
इंसान की उत्पत्ति, आनुवांशिकी, जीवाश्मिकी और मानवशास्त्र के क्षेत्र में होने वाले शोध को धर्मसत्ताएं रोकने की कोशिश करती हैं. लोग तो ये भी मान रहे हैं कि मिस्र में बनने जा रहा नया विज्ञान और तकनीकी संस्थान भी इस तरह के धार्मिक दबाव से पूरी तरह नहीं बच पाएगा.
सामाजिक और राजनीतिक ढांचा
हालांकि सारे वैज्ञानिक इसके लिए इस्लाम को दोषी नहीं मानते. ब्रिटेन में जन्मीं मुस्लिम फिजिशियन क्वांता बताती हैं कि सउदी के अस्पताल में दो साल तक काम करने के दौरान उनकी राह में धर्म कभी बाधा नहीं बना. न तो उन्हें कभी अपने रिसर्च को सीमित करने की जरूरत पड़ी और न ही कभी इस बात की शिकायत हुई कि उन्होंने पुरुषों का इलाज किया या फिर सिर नहीं ढंका. क्वांता के मुताबिक, "बहुत ज्यादा रुढ़िवादी परिवार जिनमें महिलाएं हाथों को दस्तानों से और सिर ढंक कर आती थी, उन्होंने भी कभी सवाल नहीं उठाए." हालांकि इसके बावजूद दाजानी का कहना है कि अरब जगत में मुक्त विचारों और बातों को दबाया गया है. उनके मुताबिक,"यह एक राजनीतिक स्थिति है जो कम से कम पिछले 50 सालों से है और इसकी जड़ें तो और भी पुरानी हैं. इसका असर सिर्फ राजनीति पर ही नहीं बल्कि पूरे समाज पर है. जब सोचने की आजादी नहीं होती तो बच्चे सवाल करते हुए बड़े नहीं होते. वो यथास्थिति के साथ राजी होते हैं और इस तरह से आप हर क्षेत्र में विकास को रोक देते हैं."
नौकरशाही और भाई भतीजा वाद ने भी वैज्ञानिक शोधों को दबाने की साजिश की है. शोध के लिए धन और शिक्षा के क्षेत्र में नौकरियां आम तौर पर उन लोगों को नहीं मिलतीं जो उसके उपयुक्त होते हैं बल्कि उन्हें दी जाती हैं जो सत्तातंत्र के करीबी होते हैं. ये लोग समझ में न आने या अलग विचार रखने पर इन क्षेत्रों में होने वाले काम को रोक देते हैं.
पिछले दिनों हुए राजनीतिक बदलावों ने इस बात की भी गारंटी दी है कि वैज्ञानिकों को जेल में नहीं जाना पड़ेगा. इसके साथ ही उन्हें उनकी कही या लिखी बातों को अब सेंसर नहीं किया जाएगा या फिर इसके लिए उन्हें विधर्मी घोषित नहीं किया जाएगा.
रिपोर्टः रॉयटर्स एन रंजन
संपादनः आभा एम