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अरुंधति की खरी खोटी बातें

३० जुलाई २०१०

अरुंधति रॉय की बातें सिर्फ़ भारत में ही बहुतों को नहीं सुहाती है, जर्मन प्रेस में भी कुछ तबके उनकी टिप्पणियों से तिलमिला जाते हैं. लेकिन पाठकों के बीच वे लोकप्रिय हैं.

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तस्वीर: AP

लोकतंत्र के वर्कशॉप से - इस शीर्षक से उनके लेखों का एक संग्रह जर्मन अनुवाद में छपा है इस पर टिप्पणी करते हुए बर्लिन के समाचार पत्र टागेसश्पीगेल का कहना है -

उनका विषय है आमसंहार के मामले में दोहरा मापदंड - ख़ासकर पश्चिम में. कांगों में दसियों लाख लोगों की मौत के बारे में क्यों नहीं रिपोर्टें आती हैं? और सन 2003 में अमेरिकी अभियान शुरू होने से पहले इराक में दस लाख लोगों की मौत क्या आमसंहार था, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के राहत कोर्डिनेटर डेनिस हैलिडे ने कहा था - या उद्देश्य के लिए ज़रूरी, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत मैडेलीन ऑलब्राइट का कहना था? अरुंधति रॉय के लिए यह इस पर निर्भर करता है कि नियम कौन बना रहा है, बिल क्लिंटन या वह इराकी मां, जिसे अपने बेटे को गंवाना पड़ता है... इस तरह भारत की स्टार लेखिका फिर एकबार इस लुभावने विषय को मंच पर ला रही हैं कि ग़लती अमेरिका की है. अरुंधति कहना चाहती हैं कि वह सिर्फ़ अमीर और ताकतवर ही नहीं है, बल्कि आमसंहार को झुठलाता भी है. हां, बहुतेरे जर्मन इस किताब को पढ़ेंगे.

भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव - सारी दुनिया में अखबारों के लिए टिप्पणी का एक प्यारा मुद्दा. कश्मीर में जनता के विरोध प्रदर्शन पर म्यूनिख के समाचार पत्र ज़्युडडॉएचे त्साइटुंग ने टिप्पणी करते हुए लिखा है कि प्रदर्शनकारी भारत से कश्मीर की आज़ादी चाहते हैं. आगे कहा गया है -

अगर जनमत संग्रह होता, तो अधिकतर लोग पाकिस्तान के पक्ष में होते - पाक सरकार का ऐसा मानना है...कश्मीर विवाद में भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले 63 सालों में कई युद्ध हो चुके हैं. दोनों देश उस पर दावा करते हैं. हाल में दोनों सरकारों के बीच शुरू हुई बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला है. भारतीय विदेश मंत्री के साथ बातचीत के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी ने कहा कि भारत संवाद के लिए तैयार नहीं है और वह कश्मीर के मामले को पूरी तरह से टाल जाना चाहता है. एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भारत से अपील की है कि वह भारी बलप्रयोग से बाज़ आए और प्रदर्शनकारियों की मौत की जांच करे.

इस बीच इस पूरे प्रकरण में अफ़गानिस्तान का मामला भी महत्वपूर्ण होता जा रहा है. ज़्युडडॉएचे त्साइटुंग का कहना है कि ईरान और पाकिस्तान अफ़ग़ान सरकार की मदद कर रहे हैं, और साथ ही उसके प्रतिद्वंद्वी तालिबान की भी. समाचार पत्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है -

दस्तावेजों से पता चलता है कि अधिकतर इस्लामी चरमपंथी ईरान और पाकिस्तान से आते हैं, ईरान ख़ासकर हिकमतयार को समर्थन दे रहा है, जिसके विद्रोही तालिबान के साथ जुड़े हुए हैं. तेहरान को उम्मीद है कि इसके ज़रिये दीर्घकालीन रूप से अफ़ग़ानिस्तान में अपना असर बनाए रखा जा सकेगा. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान को सबसे अधिक शिकायत पाकिस्तान से है. ख़ासकर पाकिस्तान की गुप्तचर सेवा आईएसआई के ख़िलाफ़ आरोप लगाए जा रहे हैं, जिसके बारे में मशहूर है कि वह अस्सी के दशक में सीआईए के साथ मिलकर अफ़ग़ान जिहादियों को प्रशिक्षण देती थी. हाल की लीक से ख़ासकर उसकी भूमिका स्पष्ट हुई है.

लीक यानी वेबसाइट विकीलीक्स की ओर से अफ़ग़ान युद्ध के दस्तावेजों का प्रकाशन. इन सैनिक दस्तावेजों के प्रकाशन पर अमेरिकी सरकार ने बहुत संभलकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. डेमोक्रेट सेनेटर केरी ने कहा है कि इन दस्तावेजों से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के प्रति अमेरिका की नीति के सिलसिले में गंभीर सवाल सामने आए हैं. यह ज़रूरी हो गया है कि सरकार की नीति बदली जाए. समाचार पत्र फ़्रांकफ़ुर्टर अलगेमाइने त्साइटुंग का इस सिलसिले में कहना है -

अमेरिकी समाचार साधनों के अनुसार अमेरिका के ऐफ़पाक राजदूत रिचार्ड होलब्रुक ने रविवार को ही पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़रदारी को भरोसा दिलाया था कि अमेरिकी सरकार इस लीक के पीछे नहीं है. अफ़ग़ान अभियान के कारण अमेरिकी सरकार पर घरेलू दबाव बढ़ता जा रहा है, डेमोक्रेटों की पांतों में युद्ध के प्रति संदेह बढ़ता जा रहा है. इस ह्फ़्ते कांग्रेस को अफ़ग़ानिस्तान अभियान के लिए 33 अरब डालर की मंज़ूरी देनी है. ओबामा ने फ़रवरी में ही इस धनराशि की मांग की थी. जनता भी इस सवाल पर बंटी हुई है, शक करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. वाशिंगटन पोस्ट की ओर से हाल में कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि 53 फ़ीसदी लोग समझते हैं कि इस खर्चीले युद्ध से कोई फ़ायदा नहीं है.

तेरे बिन लादेन पर भी जर्मनी में ध्यान दिया गया. ज़्युडडॉएचे त्साइटुंग में कहा गया है कि पाकिस्तान में इस पर प्रतिबंध लगाया गया है, लेकिन भारत में पहले हफ़्ते में ही इसकी रिकार्ड कमाई हुई. पाकिस्तानी गायक ज़फ़र ने इस फ़िल्म में साबित कर दिया है कि आतंक के ख़तरे से कैसे मज़ाक के स्तर पर निपटा जा सकता है.

संकलन: युलिया थीएनहाउस/उभ

संपादन: महेश झा