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आतंकी गुटों को नहीं रोक सकती सेना

ग्रैहम लुकस/एएम१८ नवम्बर २०१४

ताजा वैश्विक आतंकवाद सूचकांक में दुनिया में आतंकवादी हमलों में भारी बढ़ोत्तरी की बात कही गई है. आतंकी हमलों में मारे लोगों की संख्या भी बढ़ी है. डॉयचे वेले के ग्रैहम लूकस का कहना है कि ताजा नीतियां काम नहीं कर रहीं.

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तस्वीर: AP/dapd/Chao Soi Cheong

2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अल कायदा के हमले के बाद अमेरिका ने आंतक के खिलाफ युद्ध के नाम पर सैन्य कार्रवाई शुरू की. आज 13 साल बाद हम निश्चित ही कह सकते हैं कि इस युद्ध ने आतंक का बिलकुल भी अंत नहीं किया है. बल्कि आतंकवाद सूचकांक के मुताबिक आतंकी गतिविधियां तेजी से बढ़ रही है. 2013 में दुनिया भर में करीब 10,000 आतंकी हमले हुए. यह 2012 की तुलना में 44 फीसदी ज्यादा है. अगर आतंक के खिलाफ युद्ध से कुछ हुआ है, तो आतंक की बढ़ोत्तरी ही हुई है.

अगर हम आतंक का इतिहास देखें तो काफी चीजें साफ हो जाती हैं. आतंकी अभियान खत्म करने का सबसे प्रभावी तरीका पिछले 50 साल में रहा है कि लड़ाकों और आतंकी गुटों को पुनर्स्थापन के लक्ष्य के साथ राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल किया जाए. उत्तरी आयरलैंड इसका अच्छा उदाहरण है. जैसा कि सूचकांक कहता है कि 80 फीसदी आतंकी गुट जो विघटित हुए, वे इसलिए हुए क्योंकि उसके लिए समझौता किया गया. इस समय 10 फीसदी आतंकी गुटों ने अपनी गतिविधियां इसलिए खत्म कर दी क्योंकि वह अपने लक्ष्य पर पहुंच गए थे. सूचकांक में अहम है कि सात फीसदी गुट ऐसे भी थे जिन्हें सैन्य कार्रवाई के जरिए खत्म किया गया. अगर इंसानी जानों की संख्या देखी जाए तो यह प्रतिशत बहुत ही कम है.

धर्म से प्रेरित आतंकवाद

इससे संकेत मिलता है कि मध्यस्थता और सहभागिता आतंकियों से बातचीत में सबसे ऊपर होनी चाहिए. लेकिन कई देशों में सैनिक या अर्धसैनिक कार्रवाई ही सरकारों की अच्छी प्रतिक्रिया मानी जाती है. समस्या यह है कि इस दौर में लड़ाके किसी भी देश की सेना से लड़ने में बहुत सक्षम हैं और उन्हें कुछ सफलता भी मिल ही जाती है क्योंकि आतंकी गुट खुद को ऐसे संघर्ष तक सीमित रखते हैं जिसका खूब प्रचार हो. वे जम कर लड़ाई से भी बचते हैं क्योंकि इसमें सेना निश्चित ही ताकवर साबित होगी. अफगानिस्तान में तालिबान और उसकी जहरीली इस्लामिक विचारधारा को उखाड़ फेंकने में पश्चिमी विफलता इसका उदाहरण है.

दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकी गुटों से लड़ने के लिए सैन्य कार्रवाई से लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता. सूचकांक का दूसरा अहम मुद्दा है कि आतंक से जूझने वाले पहले पांच देशों में इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया, सीरिया सभी इस्लामिक आतंक से प्रभावित हैं. धर्म से प्रेरित इस आतंकवाद का उद्देश्य है इन देशों में बहुमत की इच्छा के खिलाफ कड़ा इस्लामिक कानून लागू करने की कोशिश. इस तरह का आतंकवाद सर्वाधिकारवादी होता है. इसलिए द्ंवद्व साफ हैः मध्यस्थता यहां काम नहीं करेगी क्योंकि तार्किक हल इस्लामी विचारधारा के सामने असर नहीं करेगा. सैन्य कार्रवाई का भी कोई मतलब नहीं है. इससे उन्हें शायद काबू में किया जा सकता है लेकिन खत्म नहीं किया जा सकेगा.

डर और नफरत का संदेश

इस पृष्ठभूमि के साथ 2015 में स्थिति और खराब होने की आशंका है. क्योंकि इस्लामिक स्टेट, अल कायदा, बोको हराम और तालिबान जैसे गुट अभी भी डर और नफरत का संदेश फैला रहे हैं. ऐसे हालात में एक ही तरीका है. जो देश इस आतंक से प्रभावित हैं, वे सामान्य लोगों को समाज में समाहित करने और मिलाने में विफल रहे हैं. उन्हें प्रभावित लोगों की आर्थिक स्थिति सुधारनी होगी. उन्हें शिक्षा के मौके देने होंगे. बिना कानूनी प्रक्रिया के सजा या जेल जैसी कार्रवाइयों को रोकना होगा. साथ ही समाज और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करना होगा. ऐसा करके ही लंबे समय में आतंकियों और चरमपंथियों को मिलने वाले सहयोग को तोड़ा जा सकेगा और उन्हें अलग थलग किया जा सकेगा. पश्चिमी देश इस प्रक्रिया में मदद कर सकते हैं लेकिन कोशिश समाज के अंदर से शुरू की जाने की जरूरत है.