'आदिवासियों को अलग थलग रखना ठीक नहीं'
१९ जनवरी २०१२उनकी यह टिप्पणी अंडमान द्वीप में जरावा आदिवासी महिलाओं के एक नग्न वीडियो के मद्देनजर आई है. वीडियो में अंडमान में इन महिलाओं को पर्यटकों के सामने नृत्य करने को कहा जा रहा है. आरोप हैं कि पर्यटकों ने पुलिस वालों को रिश्वत दी ताकि वे आदिवासियों के सुरक्षित इलाकों तक जा सकें.
गैर कानूनी
हिंद महासागर में बसे इस द्वीप की कई आदिवासी प्रजातियों से संपर्क स्थापित करना गैर कानूनी है क्योंकि सरकार उनके रहने सहने के मूल तरीके को बचा कर रखना चाहती है ताकि वे लोग उन बीमारियों से भी बच सकें जिनके खिलाफ उनके पास कोई इलाज नहीं है.
इस नीति का मतलब है कि जहां देश भर में आर्थिक विकास तेजी से हो रहा है वहीं देश में कुछ ऐसे भी कोने हैं जहां सदियों से कुछ नहीं बदला और आधुनिकता जान बूझ कर उनसे दूर रखी जा रही है.
एएफपी समाचार एजेंसी से बातचीत में आदिवासी मामलों के मंत्री किशोर चंद्र देव ने कहा, मेरे निजी विचार में उन्हें इस तरह जंगली स्थिति में हमेशा के लिए रखना गलत है. लेकिन उसी समय मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मैं उस विचारधारा का नहीं हूं कि उन्हें शॉपिंग मॉल्स या जंक संस्कृति से परिचित करवाया जाए.
काफी बहस
भारत में कई आदिवासी समुदाय संरक्षित नहीं है लेकिन विकास की दौड़ में वे अब भी पीछे हैं. देव आने वाले कुछ ही दिनों में अंडमान जाने वाले हैं. उनका कहना है कि संरक्षित आदिवासी प्रजातियों के मामले में क्या कदम उठाने हैं, इस बारे में लोगों के विचार बहुत अलग अलग हैं. और सरकार को इस मामले में आदिवासी लोगों की बात सुननी चाहिए.
एक संवाद स्थापित करना बहुत जरूरी है. जरावा समुदाय के कई युवाओं ने हिन्दी सीखी है. तो उन्हें चीजें समझाई जानी चाहिए और एक हल निकालना चाहिए. उनके पास परंपरा है, पुरातन ज्ञान है, उन्हें भी विकास का लाभ मिलना चाहिए लेकिन यह धीरे धीरे होना चाहिए. इस पर एक समझौता होना चाहिए.
कई गुटों और सरवाइवल इंटरनेशनल जैसे अभियान चलाने वालों का कहना है कि 402 लोगों की आबादी वाले जारवा आदिवासियों जैसे समुदायों को अकेले छोड़ देना चाहिए. आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाले इस ग्रुप का कहना है कि इन लोगों को बढ़ते ट्रैफिक, पर्यटन और व्यापार से नुकसान होता है.
कैसे बदलाव हो
जरावा आदिवासियों वाला वीडियो सबसे पहले जारी करने वाले लंदन के अखबार ऑबजर्वर का कहना है कि उनके पत्रकारों ने देखा कि किस तरह पर्यटक आदिवासियों को केले और बिस्किट फेंक कर दे रहे थे. साथ ही अखबार ने दावा किया है कि स्थानीय व्यापारियों ने खुले आम बताया कि जरावा लोगों के साथ एक दिन बिताने के लिए कितनी रिश्वत पुलिस को दी जाए.
अंडमान में रहने वाली सेंटीनेलेस जैसे आदिवासी समूहों ने बाहरी दुनिया से कोई भी संपर्क नहीं रखा है और उनकी सीमा में आने वालों के प्रति वे आक्रामक माने जाते हैं. उत्तरी सेंटिनल द्वीप भारतीय नौसेना के नियंत्रण में भी नहीं है. यहां रहने वाले निवासी सिर्फ डेढ़ सौ बताए जाते हैं. अंडमान और पोर्ट ब्लेयर के अधिकारियों का कहना है कि यह जानना मुश्किल है कि आदिवासी अकेले रहना चाहते हैं या नहीं. अंडमान में आदिवासी कल्याण विभाग के सोम नायडू कहते हैं, "अगर मैं जरावा समुदाय से बातचीत करता हूं तो जानता हूं कि उनकी हमसे बातचीत के प्रति रुचि लगातार बढ़ रही है. लेकिन उन्हें अपना माहौल और परंपराएं पसंद है. इसलिए हमें फैसला लेने में जल्दी नहीं करनी चाहिए. उन्हें हमारे कपड़े अच्छे लगते हैं लेकिन कपड़े धोना उन्हें नहीं पता."
कई मत
नायडू ने कहा कि केंद्र सरकार ने हाल ही में आदिवासी प्रजातियों को अलग थलग रखने वाली इस 'हैंड्स ऑफ' नीति की जांच के लिए पैनल बनाई है. सबसे पहले 1950 के दशक में एक पैनल ने काम शुरू किया और फिर 2004 में इसे और मजबूत बनाया गया.
नई दिल्ली में अंबेडकर यूनिवर्सिटी के सुरेश बाबू कहते हैं अंडमान पर उनका शोध कहता है कि पर्यवेक्षकों को आदिवासी जीवन को आदर्श के तौर नहीं रखना चाहिए. पर्यटक इन खूबसूरत द्वीपों पर रहने वाले लोगों के बारे में बहुत ही चित्र विचित्र कल्पनाएं करते हैं. इंडियन एक्सप्रेस में उन्होंने लिखा, "वे मलेरिया जैसी अन्य बीमारियों से ग्रस्त होते हैं हालांकि उनके शरीर में हमारे जितने खतरनाक कीटाणु नहीं मिलते. वे पारंपरिक दवाओं से इलाज कर लेते हैं."
सोसायटी फॉर अंडमान निकोबार इकोलॉजी ग्रुप के समीर आचार्य के विचार सुरेश बाबू से बिलकुल अलग हैं. आचार्य कहते हैं, "वहां जीवन की क्वालिटी बहुत अच्छी है." उन्होंने अंडमान के सबसे बड़े आदिवासी समुदाय निकोबारीस का उदाहरण दिया. जिन्हें सरकारी नौकरियां, आधुनिक घर और सुविधाएं मिली हुई हैं. "उनका पारंपरिक खाना नारियल था और अब वे चावल भी खाने लगे हैं. चूंकि वे धान की खेती नहीं करते इसलिए उन्हें यह खरीदने के लिए पैसे चाहिए. निकोबारीस पारंपरिक तौर से मजदूर नहीं हैं लेकिन अब वे व्हिस्की जैसी नई नई चीजों को खरीद सकने के रास्ते तलाश रहे हैं. क्या यह अच्छा जीवन नहीं है?"
रिपोर्टः एएफपी/आभा एम
संपादनः महेश झा