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इतना आसान नहीं जमाने के लिए जीना

३० जनवरी २०११

करीब 55 वर्ष की क्लाउडिया ने 30 साल पहले जर्मनी छोड़ा क्योंकि देश से मीलों दूर, वह अपनी जिंदगी को एक अलग और खास अंदाज में जीना चाहती थीं. एक ऐसे अंदाज में जिसमें प्रेम और अपार आपसी सहयोग हो. क्या था क्लाउडिया का सपना?

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किब्बुज का डेयरी फार्मतस्वीर: Kibbutz Movement

किब्बुज़, हिब्रू भाषा में इसका अर्थ है, सम्मेलन. दशकों पहले इस्राएल में कई समुदायों ने मिलकर ऐसी बस्तियां बनाईं जहां सभी परिवार मिल जुलकर समाजवादी तरीके से रहते हैं. यानी वे सब कुछ एक दूसरे के साथ बांटते हैं और घर का काम भी हाथ बंटा कर होता है. इस वक्त इस्राएल में करीब 270 ऐसी बस्तियां हैं. कइयों में 1,500 से भी ज्यादा लोग रहते हैं. विदेशों में भी कई लोग इस ख्याल से आकर्षित हुए और वे इस्राएल में किब्बुज़ में रहने के लिए पहुंचे.

Kibbuz Dalja in Israel
कुछ ऐसा है किब्बुजतस्वीर: picture-alliance/dpa

क्लाउडिया उन्हीं में से एक हैं. वह बताती हैं कि वह 1977 से इस्राएल के एक किब्बुज में रहती हैं और 1984 से स्थाई सदस्य हैं. वह वहां लाउंड्री यानी कपड़े धोने का काम करती हैं. दक्षिणी जर्मनी के शहर श्टुटगार्ट में जन्मीं क्लाउडिया स्कूल के बाद वहां एक इंटर्न के रूप में पहुंचीं और फिर वहीं की होकर रह गईं. वह कहतीं हैं, "30-35 साल पहले तक किब्बुज मेरी नजर में साम्यवाद का असली रूप था और जीने के लिए आदर्श तरीका था. मुझे यह बहुत अच्छा लगा कि लोग मिल जुलकर रहते हैं, सब कुछ एक दूसरे से बांटते हैं. यानी जब हमें काम से, खेती से फायदा होता है, मुनाफा होता है, तब हम उसे भी ऐसे बांटते हैं कि सब को अपना हक मिले. मुझे यह बात खूब भाई. लेकिन वे 1960 या 1970 के दशक के दिन थे."

70 के दशक में क्लाउडिया ने किब्बुज के किंडरगार्डन में काम करना शुरू किया. बाद में उन्होंने लाउंड्री की जिम्मेदारी अपनी हाथों में ले ली. अपने काम के लिए उन्हें हर महीने 900 यूरो यानी करीब 55 हजार रुपये मिलते हैं. क्लाउडिया के तीन बच्चे हैं. अगर इतनी ही तनख्वाह के साथ उन्हें पश्चिमी देशों में रहना हो तो मुश्किलें होंगी. लेकिन किब्बुज़ में उन्हें, उनके तीन बच्चों और उनके इस्राएली साथी को एक 120 वर्ग मीटर का घर मिला है. खाना दूसरे परिवारों के साथ मिलकर खाया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे भारत में गुरुद्वारों के लंगर में खाना मिलता है.

क्लाउडिया को लाउंड्री के लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ता. किब्बुज के लिए यहूदी धर्म अपनाने वालीं क्लाउडिया अब अपने घरौंदे के भविष्य के लिए भी दूसरे सदस्यों के साथ फैसला ले सकती हैं. लेकिन बदलती दुनिया के असर किब्बुज पर भी पड़ रहा है. क्लाउडिया कहतीं हैं, "हमारे समुदाय में भी निजीकरण शुरू हो गया है. जो भी खर्च हम समुदाय के अंदर मिलकर उठाया करते थे, अब काफी कुछ हमको अकेले उठाना होता है. लेकिन इसके लिए हमें ज्यादा तन्ख्वाह भी मिलती है."

1948 में जब इस्राएल की एक राष्ट्र के तौर पर स्थापना हुई थी, तब हर 10वां इस्राएली नागरिक किब्बुज में रहता था. लेकिन अब 75 लाख की आबादी में से सिर्फ दो फीसदी लोग ही किब्बुज में रहते हैं.

इस सब को देखकर क्लाउडिया भी निराश हैं. वह इस बात से चिंतित हैं कि दुनियाभर में लोग समाज को नहीं बल्कि अपने निजी लक्ष्यों और उन्हें पाने के प्रयासों को सबसे जरूरी मानते हैं." क्लाउडिया कहती हैं, "शायद इंसानों की दुनिया ऐसी ही हो चली है. ज्यादातर लोगों के मन में कहीं न कहीं यह बात छिपी होती है कि मैं काम जितना भी करुंगा और जो भी मैं उसकी वजह से कमाता हूं, वह सब मेरा है. और मैं ही इस बात का फैसला करुंगा कि मैं वह किसके साथ बाटूंगा. आज मैं शायद दोबारा एक किब्बुज में रहने का फैसला न करूं. निजीकरण का दौर है, लेकिन मैं इसे अपने लिए सही नहीं मानती हूं."

क्लाउडिया को चिंताएं हैं पर जर्मनी छोडकर किब्बुज में रहने पर अफसोस नहीं है. लेकिन बदलते दौरे में उनके मन के ख्याल भी ऊंचाइयों और गहराइयों तक जाते हैं. वह मानती हैं कि अब वह किब्बुज को इतनी आसानी से छोड़ भी नहीं सकतीं. उनके पास कोई संपत्ति नहीं है. यदि कोई किब्बुज को वाकई में छोड़ना चाहे तो उसे करीब 20,000 यूरो यानी करीब 12 लाख रुपये मिलते हैं. लेकिन 35 साल काम करने के बाद यह क्लाउडिया को यह रकम काफी कम लगती है.

किब्बुज यरुशलम के आस पास ही बसा है. किब्बुज चलाने वालों ने बहुत जल्द ही समझ लिया था कि अच्छी जगह पर बसने से भविष्य में खेती से ही नहीं बल्कि पर्यटन से लाभ होगा. इसलिए उन्होंने एक होटल भी बनाया जिसकी वजह से भी मुनाफा होता है. लेकिन यह किब्बुज का मकसद कतई नहीं था.

क्लाउडिया बताती हैं कि वह सिर्फ साम्यवादी ख्यालों के पतन को देखकर निराश नहीं हुई हैं, वह इस बात से भी दुखी हैं कि उन्होंने इस्राएल और पूरे इलाके में शांति नहीं देखी. वह कहती हैं, "मुझे शक ही नहीं था कि जब मेरे बच्चे बड़े होंगे और वे सेना में भरती होने की उम्र में होंगे तो इस इलाके में सेना की कोई जरूरत ही नहीं होगी क्योंकि यहां शांति का महौल होगा. लेकिन मेरे तीनों बच्चों को अनिवार्य सेवा करनी पड़ी. फिलीस्तीनियों और इस्राएल के बीच विवाद के लिए मुझे कोई सामाधान नहीं दिखता."

क्लाउडिया ने अपने तीन बच्चों को बहुत पहले ही सलाह दी कि वह किब्बुज के बाहर अपनी दुनिया बसाएं. बच्चों के भविष्य के लेकर क्लाउडिया कहतीं हैं, "मैंने इस्राएल में रहते हुए यह सीखा है कि कोई प्लान नहीं बनाने चाहिए. यहां एक कहावत है कि पुल को तब पार किया जाता है जब आप पुल के पास पहुंचते हैं. 10 साल में क्या होगा कुछ पता ही नहीं है."

रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न

संपादनः वी कुमार