उड़ता हुआ कैमरा
८ फ़रवरी २०१३एक आठ डैनो वाली हैलीकॉप्टर जैसी मशीन है जिसमें एक कैमरा लगा हुआ है. रिमोट से चलने वाली यह मशीन धीरे धीरे ऊपर उठती है और फिर तस्वीरें लेती है. कुछ साल पहले इस तरह की हवाई तस्वीरों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.
बर्लिन के ओएम स्टूडियोज के दो छात्रों ने इसे डिजाइन किया है. श्टेफान मुलर बताते हैं, "लोगों को इस बात की आदत नहीं है कि कैमरा सड़क के ऊपर घूमे, किसी गाड़ी का पीछा करे या घर के ऊपर से उड़े. ये सिर्फ कल्पना की बातें नहीं हैं, इस तकनीक को अमल में भी लाया जा सकता है. और मैं समझता हूं कि इसी वजह से बहुत से लोग इससे प्रभावित हैं और इसीलिए अकसर फिल्मों में इसका इस्तेमाल होता है."
ओमकॉप्टर का कमाल
बर्लिन में आठ डैनों वाला हेलिकॉप्टर ऑक्टोकॉप्टर ढाई किलो का कैमरा ले जा सकता है. इसे ओमकॉप्टर भी कहते हैं. कैमरे को बहुत संभाल कर इसमें बांधा जाता है. इसके बाद शूटिंग बहुत आसान हो जाती है. श्टेफान कहते हैं कि यह तकनीक बहुत नई है क्योंकि ताकतवर बैटरियां बाजार में आए ज्यादा समय नहीं हुआ. "उबलता सवाल कि यह तकनीक इतनी नई क्यों है, इसका जवाब यह है कि दो-तीन साल से ही इस तरह के मोटर और ताकतवर बैटरियां बाजार में हैं, जिनकी मदद से आप इस तरह का ड्रोन बना सकते हैं."
13 किलो का ऑक्टोकॉप्टर 300 मीटर की दूरी तक काम कर सकता है और इस पूरी मशीन की कीमत 65 लाख रुपये है. श्टेफान के मुताबिक, "अब इस बात की चिंता की जरूरत नहीं कि आप घूम रहे हैं. अपने काम पर ध्यान दीजिए और तस्वीरें लीजिए. हमने यह मशीन बनाई है और हम जानते हैं कि यह काम करता है, इसलिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं."
इस मशीन की बैटरी सिर्फ छह मिनट चलती है. फिर इसे बदलना पड़ता है. सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए तीन मिनट में ही बैटरी बदल दी जाती है. इसके बाद ऑक्टोकॉप्टर फिर तैयार हो जाता है. ज्यादा पावर वाले लेंस से ऊपर जाकर तस्वीरें लेना पहले आसान नहीं होता था. हेलीकॉप्टर से इतनी नीचे आना मुश्किल था. "आप हेलिकॉप्टर के सहारे शायद इतनी नीचे की तस्वीर न ले पाएं और यदि आ भी जाते, तो उससे बहुत रेत उड़ती. यदि हेलिकॉप्टर से एक मीटर की ऊंचाई पर आ भी जाते हैं तो कोई फायदा नहीं है."
ट्रैफिक पर भी नजर
तकनीकी तौर पर देखें तो यह टोही विमानों से ज्यादा अलग नहीं है. टोही विमान यानी ड्रोन विमान. जिनका नाम सुनते ही अफगानिस्तान, इराक, पाकिस्तान की याद आ जाती है.
इन ड्रोन विमानों का भी सिद्धांत तो वही है, लेकिन क्षमता अलग अलग है. कैमेरा वाले ड्रोन से किसी को खतरा नहीं. फिल्म बनाने वाले ड्रोन फिल्म की जरूरत के हिसाब से तय किए जाते हैं, वहीं सैनिक ड्रोन सैनिक जरूरतों से. अगर तकनीकी हो तो उसका इस्तेमाल सैनिक और गैर सैनिक दोनों कामों के लिए किया जा सकता है.
इनका सैनिक उपयोग करने की कोशिशें तो 1916 से ही होती रही हैं और पहले और दूसरे विश्व युद्ध में इनका इस्तेमाल भी किया गया. लेकिन आधुनिक ड्रोन के मामले में इस्राएल पायनियर है. इसका उद्देश्य रहा है पाइलटों को खतरे में न डालना और मानव रहित विमान से टोह और हमले के लिए लड़ाकू विमानों जैसा काम लेना. अब तो 600 मीटर की ऊंचाई पर जाने वाले हैंडहेल्ड ड्रोन से लेकर हाइ स्पीड सुपरसॉनिक ड्रोन मौजूद हैं.
सिर्फ ऐसा नहीं है कि इनका इस्तेमाल हमलों के लिए ही किया जाता हो. ये शोध में भी काम आते हैं. ट्रैफिक पर नजर रख सकते हैं और ये तेल, गैस और खनिजों की खोज में भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इसके अलावा हवाई टोह के लिए भी. ताकि जलते जंगलों या पाइपलाइन की सुरक्षा पर नजर रखी जा सके. इसके अलावा बाढ़ या भूकंप के इलाकों में फंसे लोगों की खोज के लिए भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है. इतना ही नहीं जर्मनी में आप इसे किराए पर ले सकते हैं. ताकि अपने गांव या स्कूल की तस्वीर ले सकें. इसका किराया सिर्फ 200 यूरो है.
रिपोर्टः आभा मोंढे
संपादनः ईशा भाटिया