उत्तराखंड में बहती बदलाव की बयार
१९ नवम्बर २००८पंचायतों में महिलाओं का बढ़ता प्रतिनिधित्व यूं तो अच्छा संकेत माना जा रहा है. एक ज़माने में शराब विरोधी और जंगल बचाओं आंदोलन से देश दुनिया तक अपनी पहचान बनाने वाली उत्तराखंड की महिलाओं को अब और भी कई मोर्चों पर आगे आना पड़ा है. आज उनके पास एक आवाज़ तो है लेकिन उसे दबाने वाली ताक़तें भी और मज़बूत और व्यापक हुई हैं.
उत्तराखंड में इस बार पचास फीसदी महिला आरक्षण वाली पंचायत सीटों के अलावा- और पांच फीसदी सीटों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की है. यानी सामान्य वर्ग की पांच फीसदी सीटें भी उनके खाते में हैं. भारतीय लोकतंत्र के सबसे बुनियादी और सबसे दूरस्थ इकाई यानी ग्राम पंचायतों में महिलाओं ने अपना झंडा बुलंद कर दिया हैं. चमोली ज़िले के एक सुदूर गांव की प्रधान शीला का भी एक मासूम सपना है. शीला का कहना है कि ना तो गांव में पानी ना सड़क और ना ही बच्चों के लिए स्कूल है. इन सब सुविधाओं की बहुत ज़रूरत है.
उत्तराखंड की जनप्रतिनिधियों के लिए देहरादून में एक खुला मंच रखा गया. क़रीब एक हज़ार महिलाएं इसमें शामिल हुईं. खुला मंच में सरकार के नुमायंदे भी थे और पंचायती राज अधिकारों के विशेषज्ञ भी. महिला जनप्रतिनिधि कुछ साक्षर थीं कुछ निरक्षर. जो जैसी भी थीं अपनी बात रखना जानती थीं. सबके पास कहने को बहुत कुछ था और सीखने की भावना भी. अपने अधिकारों को अमल में लाने के तरीक़े सीखने की आंकाक्षा. पौडी़ ज़िले से आयी शैला रानी कहती हैं कि बहुत ज़्यादा अधिकार दिए जाने की ज़रूरत है लेकिन उसके साथ-साथ ये भी ज़रूरी है कि हमें सही प्रशिक्षण दिया जाए और सीखने का समय भी.
इस बात की तस्दीक़ करती हैं दामिनी. वह नव निर्वाचित महिला ग्राम प्रधानों और ज़िला पंचायत सदस्यों के प्रशिक्षण का काम देखने वाली एक राष्ट्रीय संस्था की विशेषज्ञ हैं. दामिनी का कहना है कि पंचायत चुनावों में खड़ी होने वाली महिलाएं कुछ कर दिखाना चाहती हैं. भले ही उन्हें शिक्षा के अवसर नहीं मिल पाए हों लेकिन बदलाव लाने की लगन उनमें किसी से कम नहीं है.
महिला जनप्रतिनिधियों की लड़ाई अब जंगल बचाने और शराब का विरोध करने तक सीमित नहीं है. वे और भी बुनियादी मसले उठाने को तत्पर हैं. टिहरी की राधा देवी बताती हैं कि काफ़ी योजनाओं पर अमल किए जाने की ज़रूरत है. आबादी बढ़ने के कारण मूलभूत सुविधाओं को बेहतर करने की ज़रूरत है. सफ़ाई व्यवस्था पर भी दिया जाना चाहिए और सड़कों का भी निर्माण होना चाहिए.
कई मुश्किलें हैं. पुरूष समाज के कई अवरोध हैं. लेकिन अब जागरूकता की बयार में अवरोधों के ढहने का दौर है. आई कैन डू इट- मैं कर सकती हूं. सुनीता का कहना है कि शुरूआती दो सालों में तो उन्हें यही नहीं पता था कि पंचायत के क़ायदे क़ानून क्या है और किस तरह से काम करना है. पंचायत सचिव से भी कोई हमें ख़ास मदद नहीं मिली और वह मीटिंग में भी नहीं आते थे. सम्बन्धित अधिकारियों से हमें कोई ख़ास मदद या प्रोत्साहन नहीं मिला लेकिन उसके बावजूद हमें पूरा भरोसा है कि हम कुछ कर दिखाएंगें.
स्त्री अधिकारों की ये दुंदुभि उनके इरादों का नाद है. हंसिया और हल लेकर अपने परिवार का भरण पोषण करती आयी पहाड़ी महिलाएं अब गांवों में हुकूमत की बागडोर संभालकर अपने समाज की किस्मत भी बदलने को तैयार हैं.