कहां रखे जर्मनी परमाणु कचरा
२ फ़रवरी २०१०1988 तक जर्मनी में कुल 20 परमाणु बिजलीघर काम कर रहे थे. इस बीच तीन बंद हो चुके हैं. तय यह हुआ था कि 2022 तक बाक़ी 17 परमाणु बिजलीघर भी ठंडे पड़ जायेंगे. लेकिन ख़बर है कि जर्मनी की सरकार पर्दे के पीछे उनकी आयु बढ़ाने में लगी है, हालांकि इन बिजलीघरों से निकलने वाला परमाणु कचरा सरकार की जान का जंजाल बनता जा रहा है. उन से निकला हज़ारों टन कचरा ख़तरनाक रेडियोधर्मिता से अभी हज़ारों-लाखों वर्षों तक गरम बना रहेगा.
जर्मनी तो क्या, संसार के किसी भी देश के पास परमाणु कचरे के ऐसे स्थायी निपटारे की कोई व्यवस्था नहीं है कि वह स्वास्थ्य के लिए ख़तरा बने बिना हज़ारों वर्षों तक एक ही जगह अनछुआ पड़ा रहे.
दुनिया में पहली बार
जर्मनी में परमाणु कचरा रखने के इस समय तीन अस्थायी भूमिगत आगार हैं. उन में से एक की हालत इतनी विस्फोटक है कि जर्मनी के विकिरण सुरक्षा कार्यलय ने गत 15 जनवरी को ख़तरे की घंटी बजा दी. कार्यालय अध्यक्ष वोल्फ़गांग क्यौनिश ने एक पत्रकार सम्मेलन बुला कर कहा, "सारी दुनिया में यह पहली बार है कि हमें एक भूमिगत कूड़ागार को हाथ लगना पड़ेगा और वहां पड़े कचरे को बाहर निकालना पड़ेगा".
इस डिपो या कूड़ागार का नाम है आसे. वह नमक निकालने की एक पुरानी खान है, जिस में 750 मीटर की गहराई तक ज्ञात और अज्ञात कि़स्म के रेडियोधर्मी कचरे वाले 1.26.000 हज़ार बड़े बड़े पीपे पड़े हुए हैं. इन पीपों को 1967 से वहां रखना शुरू हुआ. पहले केवल आजमाइश के तौर पर, लेकिन बाद में एक तरह से स्थायी तौर पर. उस समय की वैज्ञानिक तकनीकी जानकारी के आधार पर मान लिया गया कि पीपे लंबे समय तक वहां सुरक्षित रहेंगे.
पानी रिसने से हड़बड़ी
लेकिन, 1988 से इस खान की छतों और दीवारों से नमक मिला पानी रिसने लगा है. यह पानी पीपों के साथ रासायनिक क्रिया करने और उन्हें गलाने लगा है. छत भी सरकने और धंसने लगी है. विशेषज्ञों की एक टीम ने स्थिति का अध्ययन करने के बाद 225 पृष्ठों की एक रिपोर्ट तैयार की.
उसके आधार पर विकिरण सुरक्षा कार्यालय ने तय किया है कि खान को पाटने और परमाणु कचरे को दफ़ना देने के बदले सभी पीपों को जल्द से जल्द वहां से निकालना पड़ेगा. "खान को पूरी तरह पाट देने से हमारी पीढ़ी को तो कुछ समय के लिए जल्द ही सुरक्षा मिल जाती, लेकिन हमें यह भी सोचना पड़ रहा है कि हम भावी पीढ़ी पर क्या बोझ डाल रहे हैं," विकिरण सुरक्षा कार्यालय के अध्यक्ष ने कहा.
ख़तरे से खाली नहीं
परमाणु कचरे से भरे पीले रंग के इन सवा लाख पीपों को बाहर निकालना भी ख़तरे से खाली नहीं है. कोई नहीं जानता कि वे किस हालत में हैं और उन में रखा कचरा कितना कम या ज़्यादा ख़तरनाक़ है. विकिरण सुरक्षा कार्यालय के अध्यक्ष वोल्फ़गांग क्यौनिश ने बताया कि इस का कुछ अनुमान लगाने के लिए भूमिगत डिपो के कुछ कमरे खोले जायेंगेः "स्थिति हमारे अनुमान से भी बुरी हो सकती है. हो सकता है कि हमें सब कुछ नये सिरे से सोचना पड़े. हमें सोचना पड़े कि जिन लोगों को पीपे बाहर निकालने का काम करना होगा, उनके लिए रेडियोधर्मी विकिरण के ख़तरे को देखते हुए क्या हम ऐसा कर भी सकते हैं."
अरबों यूरो की चपत
दूसरे शब्दों में, यदि कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए ख़तरा बहुत अधिक पाया गया, तो, इस विकल्प का त्याग भी किया जा सकता है. अनुमान है कि सभी पीपों को बाहर निकालने में दस साल तक का समय लग सकता है और पौने चार अरब यूरो, यानी क़रीब 245 अरब रूपयों से अधिक का ख़र्च आ सकता है. यह ख़र्च सरकार को, यानी अंत में करदाता जनता को ही उठाना पड़ेगा, जबकि कूड़ा पैदा करती हैं बिजलीघर चलाने वाली निजी कंपनियां. कर्मचारियों के स्वास्थ्य की सुरक्षा को देखते हुए 75 प्रतिशत काम दूरनियंत्रित रॉबट मशीनों से करवाना पड़ सकता है.
प्रश्न यह भी है कि आसे के 1.26.000 पीपे जायंगे कहां? फिलहाल उन्हें ज़ाल्सगिटर शहर के पास इस बीच बंद हो गयी खनिज लोहे की एक खान कोनराड में रखने का विचार है. यह खान क्षीण विकिरण पैदा करने वाले परमाणु कचरे का डिपो है और जर्मनी के एक प्रमुख नगर ब्राउनश्वाइग से केवल आठ किलोमीटर दूर है. पहली बात, उस में इतनी जगह नहीं बतायी जाती कि वहां आसे से आने वाले सभी पीपे समा सकें. दूसरी बात, आसे वाला कचरा कहीं अधिक रेडियोधर्मी है. कोनराड वाला डिपो इस तरह के कचरे के लिए नहीं बना है.
स्थायी समाधान किसी देश के पास नहीं
एक तीसरा प्रश्न यह भी है कि जर्मनी की पर्यावरण प्रबुद्ध जनता जब परमाणु कचरे वाली रेल गाड़ियों की पटरियों तक पर धरना देने बैठ जाती है, तो क्या वह सड़कों पर से इस तरह के कचरे को निर्विरोध जाने देगी?
विश्वस्तर पर देखा जाये, तो प्रश्न यह भी है कि जब रूस, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों के पास भी परमाणु कचरे के स्थायी भंडारण या निपटारे का कोई जवाब नहीं है, तो क्या वह भारत जैसे देशों के पास हो सकता है?
वास्तव में सभी देशों के सरकारें इस मामले में अपनी जनता को भुलावे में रख रही हैं. यही राग अलापती हैं कि परमाणु ऊर्जा के बिना काम चल ही नहीं सकता. लेकिन, कोई सरकार यह नहीं बताती कि परमाणु कचरा रखने का उस के पास क्या कोई ऐसा स्थायी विकल्प भी है, जो कुछेक लाख वर्षों तक के लिए वैध रहे?
रिपोर्ट- राम यादव
संपादन- उज्ज्वल भट्टाचार्य