'किराए की मां' के बच्चों को वतन भी नसीब नहीं
१० मार्च २०१०हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने महिला और बाल कल्याण मंत्रालय से कहा है कि वह जर्मन दंपत्ति को इन्हें गोद लेने की अनुमति दे. साथ ही मामले की सुनवाई 16 मार्च तक टाल दी गई है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कर दिया है कि इस मामले को एक अपवाद माना जा रहा है और अन्य मामलों में इसे उदाहरण के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए. इससे पहले भारत सरकार ने कहा था कि जर्मन दंपत्ति बच्चों को गोद नहीं ले सकता.
यह तभी मुमक़िन है जब बच्चों के जैविक मां बाप (बायोलॉजिकल पेरेन्ट्स) ने उन्हें छोड़ दिया हो. इस मामले में बच्चे एक किराए की मां से पैदा हुए थे और दो देशों के बीच गोद लेने का कोई रास्ता नहीं था. जस्टिस अशोक कुमार गांगुली और आरएम लोधा की बेंच ने भारत सरकार से बच्चों के गोद लेने की बात कही थी क्योंकि जर्मनी में सरोगेट मदरहुड या किराए की मां लेना ग़ैर क़ानूनी है.
जर्मनी ने बच्चों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया था. भारत सरकार ने भी नागरिकता से इनकार करते हुए कहा था कि किराए की मां से पैदा हुए बच्चों के लिए नागरिकता को लेकर कोई अधिकार नहीं है. बच्चों के माता पिता ने एक आम ज़िदगी का ख़्वाब देखना छोड़ दिया हैं. दोनों लगभग दो साल पहले भारत आए थे और गुजरात में एक किराए की मां के ज़रिए जुड़वां बच्चे पैदा हुए.
बच्चों के पैदा होने के एक हफ़्ते बाद उन्होंने भारत में जर्मन दूतावास से संपर्क किया और कहा कि बच्चे भारत में एक किराए की मां या ''सरोगेट मां'' से पैदा हुए हैं. दूतावास ने बच्चों को जर्मन नागरिक बनाने से इनकार कर दिया जिसके बाद दोनों माता पिता एक मुश्किल स्थिति में फंस गए.
जर्मनी में सरोगेसी या किराए की मां लेना ग़ैर क़ानूनी है. भारत में जर्मन राजदूत टोमास माटुसेक का कहना है, "यह ग़ैर क़ानूनी इसलिए है क्योंकि यह मानवता के सम्मान को लेकर हमारे विचारों से मेल नहीं खाती. यह हमारे संविधान में लिखा है." माटुसेक ने कहा कि यह दो बच्चे अपनी ग़लती से दुनिया में नहीं आए हैं, लेकिन जर्मन सरकार इन्हें जर्मन नहीं बना सकती. उधर बच्चों के पिता कहते हैं कि उन्हें लगा कि यह जर्मनी में ग़ैर क़ानूनी है, विदेश में नहीं.
परेशानी वैसे यहीं से शुरू होती है. जर्मन सरकार का कहना है कि बच्चे भारतीय है और भारत सरकार कहती है कि बच्चे जर्मन हैं. इस वजह से बच्चे अब किसी देश के नागरिक नहीं हैं. उनके पिता कहते हैं, "हम ऐसे में क्या कर सकते हैं? क्या हम बच्चों को छोड़ कर चले जाएं या फिर उन्हें अनाथ आश्रम में डाल दें या किसी से गोद लेने को कह दें. लेकिन जब मैं इन्हें देखता हूं तो मैं इनके साथ अपने आप को जुड़ा महसूस करता हूं. मैं किसी को नहीं जानता जो इस स्थिति में कहे कि मैं जर्मनी में एक आराम की ज़िंदगी जीने के लिए बच्चों को त्याग दूंगा क्योंकि मैं इस स्थिति से जूझ नहीं सकता."
उनकी पत्नी वापस जर्मनी जा चुकी हैं ताकि वे कोर्ट कचहरी के लिए अपने पति को पैसे भेज सकें. अगर वे बच्चे को गोद लेते हैं तो शायद कुछ आसानी होगी लेकिन यह प्रक्रिया भी लंबी और मुश्किल है. उधर पिता का भी वीज़ा ख़त्म हो रहा है और जल्द ही उन्हें जर्मनी वापस लौटना है.
रिपोर्टः का क्युस्टनर/एम गोपालकृष्णन
संपादनः एस गौड़