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क्या भारतीयों के लिए खुलेंगे जर्मनी में नौकरी के रास्ते

१६ दिसम्बर २०१९

जर्मनी की चांसलर आज जर्मन उद्योग और मजदूर संगठनों के प्रतिनिधियों से मिल रही हैं. इस बैठक में कुशल कामगारों की कमी से निबटने के उपायों पर चर्चा हो रही है. भारत जैसे देशों से कुशल कामगारों को आकर्षित करने का इरादा है.

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Merkel in Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

विश्व अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी हो, तो जर्मनी की अर्थव्यवस्था भी सही रास्ते पर होती है. उद्योग जगत में कहावत है कि यदि वैश्विक अर्थव्यवस्था प्रगति की राह पर हो तो जर्मनी से मशीनरी की मांग भी बढ़ जाती है. लेकिन पिछले महीनों में धीमी पड़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था का असर जर्मन अर्थव्यवस्था पर भी दिख रहा है. और उसे पटरी पर लाने के लिए सरकार के अलावा उद्योग संगठन और ट्रेड यूनियन भी सक्रिय हो गए हैं. घरेलू रोजगार बाजार को सुरक्षा देने के लिए जर्मनी में खाली जगहों पर स्थानीय या यूरोपीय नागरिकों को नौकरी देने का कानून है. लेकिन कुशल कामगारों का कमी का सामना जर्मनी अब सिर्फ प्रशिक्षित यूरोपीय नागरिकों से पूरा नहीं कर पा रहा है. कई दूसरे यूरोपीय देशों की तरह जर्मनी भी आप्रवासियों पर बढ़ती चिंता और बूढ़ी होती आबादी के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है ताकि उद्योग की जरूरतें पूरी की जा सकें.

अगले साल मार्च में जर्मनी में एक नया आप्रवासन कानून लागू होने वाला है जो गैर यूरोपीय नागरिकों के लिए जर्मनी में वीजा पाना और काम पाना आसान बना देगा. अब तक ये सुविधा सिर्फ यूनिवर्सिटी डिग्रीधारियों को ही थी, लेकिन अब इसमें पेशेवर योग्यता और जर्मन भाषा जानने वाले आप्रवासियों को भी शामिल किया जा रहा है. जर्मन वाणिज्य और व्यापार संघ के एरिक श्वाइत्सर का कहना है, "बहुत सी जर्मन कंपनियां कमजोर अर्थव्यवस्था के बावजूद कुशल कामगारों की तलाश में हैं." आईटी और नर्सिंग सेक्टर खास तौर पर कामगारों की कमी का रोना रो रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि उद्यमी कुशल कामगारों की कमी को अपने कारोबार के लिए सबसे बड़ा जोखिम मान रहे हैं. एरिक श्वाइत्सर की सरकार से उम्मीद है कि नए कानून को प्रभावी ढंग से लागू किया जाएगा.

पायलट प्रोजेक्ट में भारत?

आज की बैठक में इस बात पर भी चर्चा हो रही है कि जर्मन उद्योग कुशल कामगारों को नौकरी देने के मामले में किन देशों पर ध्यान दे रहा है. इनमें भारत भी शामिल है. जर्मनी के श्रम मंत्री हुबर्टस हाइल का कहना है कि सरकार भावी कामगारों को वीजा देने के मामले में नौकरशाही बाधाओं को कम करेगी. इसमें डिग्री की मान्यता, भाषा का ज्ञान और वीजा की प्रक्रिया शामिल है. उन्होंने उद्योग जगत से मांग की है कि वह अपनी प्राथमिकता तय करे कि किन देशों से कुशल लोगों की भर्ती करना चाहता है.

Merkel in Indien
नवंबर 2019 में भारत दौरे के समय कुछ भारतीयों के साथ जर्मन चांसलर मैर्केल.तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

उद्योग जगत अक्सर कामगारों की कमी की शिकायत करती रहती है. ट्रेड यूनियनों का आरोप रहता है कि उद्योग वेतन को कम रखने के लिए जरूरत से ज्यादा कामगारों की उपलब्धता चाहता है. लेकिन विदेशी कामगारों को आकर्षित करने के पीछे मुख्य समस्या है जर्मनी में लगातार काम करने वाली उम्र के लोगों का कम होना. श्रम मंत्री हाइल कहते हैं कि सरकार का मकसद जर्मनी में वेतन और मजदूरी पर दबाव बनाना और उसे कम करना नहीं है, "हमारी समस्या ये है कि हमें नौकरी देने के लिए प्रशिक्षित लोग नहीं मिल रहे हैं." मीडिया रिपोर्टों के अनुसार विदेशी कामगारों को आकर्षित करने के मामले में पायलट प्रोजेक्ट शुरू किए जाएगें जिनके केंद्र में भारत, ब्राजील और वियतनाम होंगे.

समाज में घुलने मिलने की समस्या

जर्मनी का नया कानून ऐसे समय में लागू हो रहा है जब आप्रवासन विरोधी एएफडी पार्टी के लिए समर्थन लगातार बढ़ रहा है. एएफडी स्थानीय चुनावों में चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू पार्टी के समर्थन में सेंध लगाकर लगातार जीतती जा रही है. हालत यहां तक पहुंच गई है कि हाल में हुए प्रांतीय चुनावों में थुरिंजिया प्रांत में जर्मनी की स्थापित पार्टियों के साथ मिलाकर भी बहुमत नहीं मिला है और वहां अल्पमत सरकार बनाने की नौबत आ गई है क्योंकि कोई पार्टी धुर दक्षिणपंथी एएफडी के साथ सरकार बनाने को तैयार नहीं है.

ऐसे में नए कानून को लागू करते समय जर्मन सरकार को आप्रवासियों पर लोगों की संवेदनशीलता का भी ख्याल रखना होगा. विदेशों से आने वाले नए लोगों को नौकरी देने के साथ इस बार समाज में उनके घुलने मिलने को भी प्राथमिकता देनी होगी. इसीलिए इस बार आप्रवासियों के जर्मन ज्ञान पर भी जोर दिया जा रहा है. जर्मनी की समेकन राज्यमंत्री विडमन माउस ने चेतावनी दी है कि नए लोगों की भर्ती में पुरानी गल्तियों को दोहराया नहीं जाना चाहिए. 1950 और 1960 के दशक में जर्मनी में युगोस्लाविया और तुर्की जैसे देशों से मेहमान कामगार लाए गए थे. समाज में उनके समेकन के बारे में कुछ नहीं सोचा गया क्योंकि यह माना गया कि कुछ साल काम करने के बाद वे अपने देशों में वापस लौट जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वे यहीं रहे, भाषा भी नहीं सीखी, बाद में उनके परिवार के सदस्य भी आ गए, नई पीढ़ियां पैदा हुईं और और अब बहुत से मामलों में समेकन की समस्या पैदा हो रही है. माउस ने कहा, "जो तुर्की के खनिकों और पहली पीढ़ी के मेहमान कामगारों को नहीं मिला, आज फिलीपींस के चिकित्साकर्मियों को मिलना चाहिए."

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DW Mitarbeiterportrait | Mahesh Jha
महेश झा हिंदी सर्विस के प्रमुख