क्या होगा, जब चांद न होगा
२७ अक्टूबर २००८भारत के पहले चंद्रयान ने बुधवार, 22 अक्टूर को, चंद्रमा की दिशा में अपनी यात्रा शुरू कर दी. 3.85.000 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद, क़रीब दो सप्ताह के भीतर वह चंद्रमा की परिक्रमा कक्षा में चला जायेगा और दो वर्षों तक उसकी परिक्रमा करेगा. चंद्रयान-1 भारत के अतिरिक्त अमेरिका और जर्मनी सहित यूरोप के कुछ अन्य देशों के भी वैज्ञानिक उपकरण अपने साथ ले गया है. अगले दिनों में हम चंद्रमा के बारे में बहुत कुछ सुनेंगे. पर, क्या आपने कभी यह भी सोचा है कि यदि चंद्रमा नहीं होता, तब क्या होता? उस के न होने से हमारी धरती पर क्या देखने में आता? नहीं सोचा है न! हम आपको बताते हैं:
तथ्य और आंकड़े
पहले कुछ तथ्य और आंकड़ेः चंद्रमा रेगिस्तान की तरह मरुस्थल है. उसकी ऊपरी सतह चेचक वाले दाग भरे किसी चेहरे की तरह गड्ढों और क्रेटरों से भरी है. जन्म कोई चार अरब वर्ष पूर्व हुआ समझा जाता है. पृथ्वी से उसकी औसत दूरी 3.84.467 किलोमीटर है.
पृथ्वी और चन्द्रमा ग्रह और उपग्रह के बदले दो जुड़वां ग्रहों के समान हैं. चंद्रमा का व्यास पृथ्वी के व्यास का एक-चौथाई है, जो कि अपेक्षाकृत काफी़ अधिक है. पृथ्वी का व्यास 12.756 किलोमीटर है, चंद्रमा का 3.476 किलोमीटर.
पृथ्वी के विपरीत चंद्रमा के पास न तो अपना वायुमंडल है और न ही अपना चुंबकीय क्षेत्र. चंद्रमा पर हर चीज़ का वज़न, पृथ्वी पर के वज़न का छठा हिस्सा ही रह जाता है. यानी, जो चीज़ पृथ्वी पर 60 किलो भारी है, वह चंद्रमा पर केवल 10 किलो भारी होगी.
चंद्रमा अपनी धुरी पर और साथ ही पृथ्वी के चारो ओर भी अपना एक चक्कर 27 दिन 8 घंटे में पूरा करता है. इसी कारण पृथ्वी पर से हमेशा उसका एक ही आधा भाग दिखायी पड़ता है और यही आधा भाग लगभग हमेशा सूर्य के प्रकाश में भी रहता है.
यही चंद्रमा यदि न होता, तो पृथ्वी पर का नज़ारा कुछ और ही होता. न चांदनी रातें होतीं, न कवियों की कल्पनाएं. रातें और भी अंधियारी और कुछ और ठंडी होतीं- इसलिए, क्योंकि चंद्रमा अपने ऊपर पड़ने वाले सूर्य-प्रकाश और उसकी गर्मी का एक हिस्सा पृथ्वी की तरफ परावर्तित कर देता है.
सबसे बड़ी बात यह होती कि पृथ्वी पर के समुद्रों में ज्वार-भटा भी नहीं आता. चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल से ही पृथ्वी पर ज्वार-भाटा पैदा होता है. बहुत संभव है कि समुद्री जलधाराओं की दिशाएं भी आज जैसी नहीं होतीं.
चांद बिना दिन होता छोटा
ज्वार-भाटा अपनी धुरी पर घूमने की पृथ्वी की अक्षगति को धीमा करते हैं. ज्वार-भाटे न होते तो पृथ्वी पर दिन 24 घंटे से कम का होता. कितना कम होता, कहना कठिन है- शायद 6 घंटे छोटा होता, शायद 10 घंटे भी छोटा होता.
यह भी हिसाब लगाया गया है कि डायनॉसरों वाले युग में, जब चंद्रमा आज की अपेक्षा पृथ्वी के निकट हुआ करता था, उसके गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के कारण पृथ्वी पर एक दिन 24 नहीं, साढ़े 23 घंटे का हुआ करता था और कुछेक अरब साल पहले केवल 4 से 5 घंटे का ही एक दिन हुआ करता था.
चांद न रहता, तो हम भी न होते
कुछ ऐसी वैज्ञानिक अवधारणाएँ भी हैं, जो कहती हैं कि यदि चंद्रमा नहीं होता, तो पृथ्वी पर मानव जाति का अभी तक उदय भी नहीं हुआ होता-- यानी विकासवाद अभी बंदरों और जानवरों तक ही पहुँच पाया होता. ऐसा इसलिए, क्योंकि चंद्रमा के न होने पर ज्वार-भाटे नहीं होते और उनके न होने से भूमि और समुद्री जल के बीच पोषक तत्वों के आदान-प्रदान की क्रिया बहुत धीमी पड़ जाती. इससे सारी विकसवादी प्रक्रिया ही धीमी पड़ जाती.
चंद्रमा के कारण पृथ्वी की अक्षगति का धीमा पड़ना आज भी जारी है. हर सौ वर्षों में वह 0.0016 सेकंड, यानी हर 50 हज़ार वर्षों में एक सेकंड की दर से धीमी पड़ रही है.
हम से बढ़ती चांद की दूरी
पृथ्वी की गति धीमी पड़ रही है, और चंद्रमा की बढ़ रही है. अक्षगति बढ़ने से वह पृथ्वी से दूर जा रहा है--प्रतिवर्ष करीब 3 सेंटीमीटर की दर से दूर जा रहा है. एक समय ऐसा भी आयेगा, जब चंद्रमा आज की अपेक्षा डेढ़ गुना दूर चला जायेगा.
और तब पृथ्वी पर के केवल एक हिस्से के लोग ही चंद्रमा को देख पायेंगे, दूसरे हिस्से के लोग नहीं, बशर्ते कि तब तक पृथ्वी पर जीवन है और मनुष्य भी रहते हैं.