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जर्मन लीग के सफल 50 साल

२४ अगस्त २०१२

जर्मनी का फुटबॉल लीग बुंडेसलीगा इस सीजन अपनी स्थापना की स्वर्ण जयंती मना रहा है. 28 जुलाई 1962 को डॉर्टमुंड के वेस्टफालन हॉल में उसकी स्थापना का फैसला हुआ था. आज वह अरबों यूरो का उद्यम है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

यह सफलता की ऐसी कहानी है जिसकी मिसाल नहीं. जर्मन फुटबॉल महासंघ के प्रमुख वोल्फगांग नियर्सबाख कहते हैं, "आज तक मुल्क में ऐसा कोई संस्थान नहीं जो हर हफ्ते लाखों लोगों का मनोरंजन करता है." बुंडेसलीगा दुनिया के सबसे कामयाब और लोकप्रिय फुटबॉल लीग में शामिल है. हर वीकएंड हजारों लाखों फैन स्टेडियम में, पब में या अपने ड्राइंग रूम में टीवी पर पसंदीदा क्लब के खेल देखते हैं. पिछला सीजन बुंडेसलीगा के इतिहास का सबसे सफल सीजन रहा. औसत 44 हजार लोगों ने बुंडेसलीगा का हर मैच स्टेडियम में देखा. यह यूरोपीय रिकॉर्ड है. 50 साल पहले इस सफलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

कठिन शुरुआत

बुंडेसलीगा की स्थापना मुश्किल परिस्थितियों में हुई. 28 जुलाई 1962 को 9 घंटे तक चली गरमागरम बहस के बाद 129 प्रतिनिधियों ने भारी बहुमत से 16 क्लबों की बागीदारी के साथ राष्ट्रीय फुटबॉल चैंपियनशिप शुरू करने का फैसला किया.उस समय राष्ट्रीय टीम के कोच सेप हैरबर्गर ने फैसले के बाद कहा, "इस फैसले में मैं खुश हूं. आखिरकार हमने फैसला कर लिया." डीएफबी प्रमुख नियर्सबाख आज उस फैसले के बारे में कहते हैं, "जर्मन फुटबॉल के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण घटना थी. इन लोगों ने उस एक मील का पत्थर रखा."

कुल मिलाकर 46 क्लबों ने शुरुआती दौर में शामिल होने की अर्जी दी. उनमें हैम्बर्ग का क्लब भी था जो एकमात्र ऐसा संस्थापक सदस्य है जो आज भी बुंडेसलीगा में खेल रहा है और कभी भी लीग से बाहर नहीं हुआ है. रिकॉर्ड बार चैंपियन रहा बायर्न म्यूनिख और बोरुसिया मोएंशनग्लाडबाख उस राउंड में मौजूद नहीं थे. वे पहली बार 1965 में बुंडेसलीगा खेलने के अधिकारी बने. 1965 में बुंडेसलीगा में भाग लेने वाले क्लबों की संख्या बढ़ाकर 18 कर दी गई. 1990 में जर्मन एकीकरण के बाद पूर्वी जर्मनी के हंसा रॉस्टॉक और डिनामो ड्रेसडेन क्लबों को बुंडेसलीगा में शामिल कर कुछ समय के लिए लीग में खेलने वालों क्लबों की संख्या 20 कर दी गई लेकिन बाद में उसे घटाकर फिर से 18 कर दिया गया.

शुरुआती दिनों में खिलाड़ियों और कोच को बहुत ज्यादा मेहनताना नहीं मिलता था. 1962 में बुंडेसलीगा की स्थापना का फैसला तो किया गया लेकिन साथ पेशेवर फुटबॉल को अनुमति नहीं दी गई. लाइसेंसधारी खिलाड़ियों को अनुमति तो दी गई लेकिन खिलाड़ियों की आमदनी महीने में अधिकतम 1200 मार्क तय की गई, जिसमें पुरस्कार राशि शामिल थी.

इस राशि पर आज के बुंडेसलीगा खिलाड़ी हंस भर सकते हैं. कहा जाता है कि बायर्न म्यूनिख के कप्तान फिलिप लाम की मासिक आय करीब छह लाख यूरो है. उस जमाने में खिलाड़ियों को खेल के अलावा भी कमाना पड़ता था. परिवार चलाने के लिए राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ी रहे गुंथर नेत्सर को डिस्कोथेक चलाते थे तो ऊवे सेलर अडिडास में काम करते थे.

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बुंडेसलीगा के 50 साल

लीग के स्कैंडल

बुंडेलीगा का पहला सीजन 1963 में शुरू हुआ. पहला गोल एक मिनट के बाद ही हो गया. 24 अगस्त को हुए मैच में डॉर्टमुंड के टीमो कोनिएत्स्का ने वैर्डर ब्रेमेन पर 58वें सकंड में ही गोल दाग दिया. मजेदार बात यह है कि उस गोल की कोई तस्वीर मौजूद नहीं है और न ही कोई फिल्म. पहले सीजन में कोलोन जर्मन चैंपियन बना. कोलोन के वोल्फगांग ओवरराथ बाद में विश्व चैंपियन बनने वाली राष्ट्रीय टीम में भी शामिल रहे.

1970 के दशक में बुंडेसलीगा को रिश्वत कांड ने अपनी चपेट में ले लिया. प्लाइंट में धांधली कर ओबरहाउजेन और बीलेफेल्ड के क्लबों ने लीग में बने रहने में कामयाबी पाई. 2005 में फुटबॉल लॉटरी कांड में रेफरी रोबर्ट हॉयत्सर की हिस्सेदारी से भी जर्मनी की प्रीमियर फुटबॉल लीग को बहुत नुकसान नहीं हुआ. 1973 में बुंडेसलीगा की लोकप्रियता ऐसी बढ़ी कि उस पर प्रायोजकों का ध्यान गया. ब्राउनश्वाइग की टीम पहली टीम थी जिसके खिलाड़ी जर्सी पर विज्ञापन के साथ मैदान पर उतरे और फुटबॉल के व्यवसायीकरण की नींव रखी.

एक और पड़ाव

बुंडसलीगा के इतिहास का एक और महत्वपूर्ण मील का पत्थर दिसंबर 2000 में फ्रैंकफुर्ट में जर्मन फुटबॉल लीग डीएफएल की स्थापना है. तब से बुंडेसलीगा के लाइसेंस और मार्केटिंग की जिम्मेदारी अकेली डीएफएल की है. पिछले साल लीग ने 1.75 अरब यूरो की कमाई की.

भारी कमाई के बावजूद बुंडेसलीगा की सफलता का रहस्य आसान खेल है. जर्मनी के स्टार कोच ऑटो रेहागेल कहते हैं, "मैदान 60x100 मीटर होता है और बदला नहीं है, कोई खिलाड़ी पहले 10 सेकंड से कम में नहीं दौड़ता था, और आज भी नहीं दौड़ता, लेकिन खेल अपने वन टच फुटबॉल से तेज हो गया है.". और इसी तेजी ने उसे लोगों का चहेता बना रखा है.

रिपोर्ट: थोमस क्लाइन/एमजे

संपादन: आभा मोंढे