ज़बरदस्ती के नार्को टेस्ट अवैध: सुप्रीम कोर्ट
६ मई २०१०इस फ़ैसले के साथ भारत के उच्चतम न्यायालय ने देश की अपराध जांच एजेंसियों को एक ज़बर्दस्त झटका दिया है. उसका कहना है कि इस तरह के तरीके केवल तभी अपनाये जाने जाने चाहिये, जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से इस के लिए तैयार है.
मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के नेतृत्व में इस निर्णय पर पहुंची न्यायाधीशों की पीठ का कहना है, " हमारे विचार से किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध ऐसे तरीकों के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. ऐसा करना उसकी निजी स्वतंत्रता के अनावश्यक अतिक्रमण के बराबर होगा."
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी आरोपी, संदिग्ध या गवाह से कोई बात जानने के लिए इन तरीकों का उपयोग संविधान की धारा 20, उपधारा तीन का उल्लंघन है. उल्लेखनीय है कि भारत की जांच एजेंसियां अब्दुल करीम तेलगी वाले स्टैंप पेपर कांड, निठारी के हत्याकांड और आरुषि हत्याकांड जैसे कई प्रसिद्ध मामलों में नार्को एनैलिसिस, ब्रेन मैपिंग और पोलीग्राफ़ टेस्ट कर चुकी हैं.
नार्को टेस्ट में, जिसे ट्रुथ-टेस्ट भी कहते हैं, आम तौर पर सोडियम पेंटोथाल या उसके जैसी कोई दूसरी मानसिक दवा दे कर यह सोचते हुए कुछ मिनटों के लिए व्यक्ति के चेतन मस्तिष्क को सुला दिया जाता है कि हो सकता है कि उसका अवचेतन मस्तिष्क सच्चाई को उगल दे. लेकिन, इसका ज़बरदस्ती उपयोग, अंतरराष्ट्रीय क़ानून की नज़र में, यातना देने के समान है.
लाइ-डिटेक्टर (झूठ की पहचान) या पोलीग्राफ़ टेस्ट में व्यक्ति के शरीर पर चार से छह चुनी हुई जगहों पर सेंसर लगाये जाते हैं और उस से कुछ सवाल पूछे जाते हैं. एक मशीन सभी संवेदकों से आ रहे संकेतों के ग्राफ़ को कागज़ के एक रोल पर उसी तरह उतारती जाती है, जिस तरह उदाहरण के लिए हृदयगति लेखी हृदय का ग्राफ़ बनाता है. सेंसर मूल रूप से सांस की गति, नब्ज़, रक्तचाप और पसीने को दर्ज करते हैं. माना यह जाता है कि सवालों के जवाब देते समय व्यक्ति जब भी झूठ बोलेगा तब घबरायेगा और उसकी सांस, नब्ज़, दिल की धड़कन और पसीना छूटने की गति बदल जायेगी और उसकी पोल खुल जायेगी. पर इस परीक्षा को बहुत अचूक नहीं माना जाता.
ब्रेन-मैपिंग (मस्तिष्क चित्रण) में व्यक्ति के मस्तिष्क की बनावट का नक्शा बनाते हुए देखा जाता है कि कब उसके मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा अधिक सक्रियता दिखाता है.
न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को जांच के इस तरह के तरीकों के लिए बाध्य करना मुक़दमे की न्यायिक कार्यविधि का भी उल्लंघन है. यदि कोई व्यक्ति इसके लिए तैयार भी है, तब भी उस से उगलवाई गई बात को साक्ष्य के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता.
सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय कई लोगों की इस आशय की याचिका पर विचार करने के बाद सुनाया है. उसने कहा कि सच्चाई जानने के लिए किये जाने वाले तथाकथित पोलीग्राफ़ टेस्ट के समय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन करना होगा. उल्लेखनीय है कि भारत सरकार जांच के इन तरीकों के पक्ष में रही है और मानती है कि उनसे जांच एजेंसियों को उपयोगी सुराग मिल सकते हैं.
रिपोर्ट: एजेंसियां, राम यादव
संपादन: महेश झा