जान बचाने वाली जेनेरिक दवाइयां
२३ जून २०१०यूरोपीय संघ और भारत के बीच एक अनुबंध की योजना है, ताकि ऐसे उत्पादन पर कड़ी नज़र रखी जा सके, यूरोपीय पेटेंट अधिकारों का हनन न हो. रोगियों पर इसका क्या असर पड़ेगा?
आशा की उम्र है 40 साल, 6 साल से उसे पता है कि वह एचआईवी से संक्रमित है. उसके पति को यौनकर्मियों से यह बीमारी लगी थी. इस बीच उसकी मौत हो चुकी है. आशा अपनी दास्तान सुनाती है कि वह ज़िंदा है, क्योंकि उसे दवाई मिल रही है, जेनेरिका मेड इन इंडिया. सारी दुनिया में दसियों लाख मरीज इनके बल पर ज़िंदा हैं.
जीवन रक्षक
डॉक्टर्स विदाउट फ़्रंटियर्स नामक संगठन भारत की जेनेरिक दवाओं के बीच से अपने कामों के लिए 80 फ़ीसदी दवाएं ख़रीदता है. इनके बिना पिछले दस सालों में दसियों लाख लोगों की मौत हो जाती. लेकिन भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते के तहत यूरोपीय संघ कोशिश कर रहा है कि जेनेरिक दवाओं का उत्पादन घटाया जाए, महंगी पेटेंट दवाइयां ली जाएं. लीना मेंघानी बरसों से लोगों के लिए सस्ती दवाइयों की ख़ातिर संघर्ष कर रही हैं. उनका कहना है, "ज़िंदगी के लिए बेहद ज़रूरी दवाइयां बाज़ार से गायब हो जाएंगी. और अगर जेनेरिका का उत्पादन बंद हो गया, तो एकाधिकारियों को खुली छूट मिल जाएगी. कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रह जाएगी और वे मनमानी क़ीमतें वसूलेंगे."
ख़ासकर ग़रीब देशों में अधिकतर मरीज़ पेटेंट वाली महंगी दवाइयों की कीमतें नहीं चुका सकते. डॉक्टर्स विदाउट फ़्रंटियर्स के अनुसार सन 2000 में हर मरीज के लिए एड्स की दवाइयों का सालाना खर्च 12 हज़ार डालर के बराबर था. भारत में बनी जेनेरिका दवाइयों की वजह से विकासशील देशों में वह अस्सी डालर तक उतर आया है. लीना मेंघानी की मांग है कि यूरोपीय संघ के साथ अनुबंध में भारत जेनेरिका उत्पादन के अधिकारों की रक्षा करे. वे कहती हैं, "नहीं तो मरीजों को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. अगर हम मान गए, तो यह भारत में जेनेरिका उत्पादन बंद हो जायेगा. बहुतेरे लोग इनके बल पर जी रहे हैं. उनके पास इतने पैसे ही नहीं हैं कि वे पेटेंट वाली दवाइयों की कीमत चुका सकें."
आशा के लिए भी यह जानलेवा होगा. उसे अपने से भी ज़्यादा अपने बेटे की चिंता है, जो एचआईवी से संक्रमित है.
रिपोर्टः डॉयचे वेले/उज्ज्वल भट्टाचार्य
संपादनः आभा एम