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जेब में भरा धन, फिर भी बढ़ता गम

२३ फ़रवरी २०१२

सिर्फ विकास, उपभोग, उत्पादन और जीडीपी में बढ़ोतरी सुख का आधार हो सकती तो क्या ही बात थी. लेकिन ऐसा होता नहीं. 21वीं सदी में इंसान अगर राजा बनना चाहता है तो उसे विकास और जीवन की गुणवत्ता की परिभाषा बदलनी होगी.

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तस्वीर: Fotolia/Lichtbildnerin

समृद्ध देशों में आर्थिक संकट और छोटी-बड़ी कंपनियों के दिवालिया होने की खबरें आजकल रोजमर्रा की बात हो गई है. इनकी रिपोर्टिंग होती है, शेयर बाजार इन पर अटकलें लगाता है. आम लोग अनिश्चितता में झूलते रहते हैं. लेकिन वैश्विक दीवालियापन पर कोई ध्यान नहीं देता.

संसाधन खत्म होने का दिन

गैर सरकारी संगठन फुटप्रिंट नेटवर्क हर साल विश्व क्षय दिवस निकालता है, वह दिन जिस दिन हम इंसान एक साल में प्रकृति द्वारा पैदा संसाधनों की खपत कर देते हैं. 2011 में यह दिन 27 सितंबर को था जबकि जर्मनी ने 15 मई को ही अपने हिस्से के संसाधनों का इस्तेमाल कर लिया था.

जर्मनी और अन्य विकसित अमीर देशों में उपभोग बहुत ज्यादा है. धरती पर रहने वाले लोग सात अरब हैं और इनमें से पांचवा हिस्सा यानि 1.4 अरब लोग अमीर देशों में रहते हैं. लेकिन वे दुनिया भर में पैदा होने वाली और उगने वाली चीजों का 80 फीसदी इस्तेमाल करते हैं. अगर दुनिया के सभी लोग इतना ही इस्तेमाल करते तो हमें पांच छह धरतियों की जरूरत पड़ती.

उपभोग बतौर विकास मॉडल

चूंकि हमारे पास एक ही धरती है इसलिए हमें अपनी आदतें बदलनी होंगी. हमें जीवन की गुणवत्ता की परिभाषा बदलनी होगी. पर्यावरण और विकास फोरम के निदेशक युर्गन मायर कहते हैं, "अमीर देशों में सुख और अमीरी अक्सर एक ही स्तर पर रखी जाती है. लेकिन दो कार, खुद का घर और खूब लाभ सुखी नहीं बनाते बल्कि व्यक्ति पर दबाव बढ़ाते हैं. इस कारण विषाद, आत्महत्या या दिल की बीमारियां घर कर लेती हैं. रईस होने के लिए लोग काम करते ही जाते हैं. इसका असर व्यक्ति, पर्यावरण और लोगों पर पड़ता है."

उपभोक्ता समाज में विज्ञापनों के अलावा टीवी सीरियलों और फिल्मों में जो जीवन दिखाया जाता है, बच्चे और युवा उसी जीवन शैली अपनाते हैं. उसी की तरह जीना चाहते हैं.

Landarbeiterinnen in Indien
विकास का एक मॉडल नहींतस्वीर: picture alliance/ZUMA Press

आज भी विकास की गिनती सकल घरेलू उत्पादन के पैमाने पर ही की जाती है. जितनी आय ज्यादा उतना उपभोग और उतना विकास. ओईसीडी का मानना है कि इस पैमाने को बदलने की जरूरत है. वे इस दिशा में काम भी कर रहे हैं. वे ऐसे विकास की बात करते हैं जिसमें सामाजिक संतोष और गुणवत्ता का भी ध्यान रखा जाएगा.

सिस्टम की मुश्किल

पर्यावरण और मानवाधिकार कार्यकर्ता वंदना शिवा कहती हैं, कुल मिला कर विकास की आज की परिभाषा विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष रॉबर्ट मैकनमारा ने गढ़ी थी. उस समय उन्होंने दो बातें कही थीं. पश्चिमी देशों की जीवन शैली विकास का लक्ष्य होना चाहिए और विकास का पैमाना धन होता है. आज की जीवन शैली इन्हीं के आधार पर बनी है. एक ऐसा सिस्टम जो काम नहीं कर रहा है. वैश्विक आर्थिक संकट इसका उदाहरण है. श्रीलंका के अर्थशास्त्री और ऊर्जा विशेषज्ञ मोहन मुनासिंघे मानते हैं कि आज के संकट दिखाते हैं कि अमीर देशों में टिकाऊ विकास नहीं हैं, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण की दृष्टि से बिलकुल नहीं और काफी हद तक सामाजिक स्तर पर भी नहीं.

विकास के नए आदर्श तैयार हो रहे हैं और महत्वपूर्ण है कि वे अलग अलग तरीके के हों. विकास का कोई एक मॉडल हो ही नहीं सकता. अमीर देशों के लिए हल अलग होगा और गरीब देशों के लिए अलग. विकासशील देशों को अपने लिए तरीके खुद ढूंढने होंगे ताकि वे आगे आएं. इस नजर से देंखें तो हम सभी विकासशील देश हैं.

रिपोर्टः हेले येपेसन/आभा एम

संपादनः महेश झा