झोपड़पट्टियों में 'मेसी' की तलाश
१० सितम्बर २०१२मेसी का बचपन अभावों और मुसीबत में बीता है. बार्सिलोना क्लब के मैनेजर ने उन्हें क्लब की यूथ एकेडमी में भर्ती कर उन्हें गरीबी की मार से बचाया. गरीब बच्चों को फुटबॉल के जरिये अभाव से बाहर निकालने की कोशिश इन दिनों भारत में भी हो रही है. स्लम सॉकर नाम का गैर सरकारी संगठन भारत की झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चों को फुटबॉल सिखाने की कोशिश कर रहा है. 2001 से लेकर अब तक कई गरीब बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग दी जा चुकी है.
कीचड़ में कमल
स्लम सॉकर की शुरुआत नागपुर यूनीवर्सिटी में स्पोर्ट्स के प्रशिक्षक प्रोफेसर विजय बारसे ने 2001 में की. बरसात की एक दोपहर में उन्होंने देखा कि एक झोपड़पट्टी में कुछ बच्चे बाल्टी को फुटबॉल बनाकर कीचड़ में फुटबॉल खेल रहे हैं. यहीं से उन्हें स्लम सॉकर संगठन बनाने का आइडिया मिला. इसके बाद 16 झोपड़पट्टियों में जाकर उन्होंने बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए इकट्ठा किया. नागपुर के इस गैर सरकारी संगठन का मकसद गरीब बच्चों के जीवन को फुटबॉल के जरिए बेहतर करना है. स्लम सॉकर टीम में बहुत सारे बच्चे तो ऐसे हैं जिनका जन्म वेश्यालयों में हुआ था.
स्लम सॉकर के संस्थापक के बेटे अभिजीत बारसे कहते है, "हम बच्चों को सबसे पहले फुटबॉ़ल की एबीसीडी सिखाते हैं. फिर इसके बाद उन्हें टीम भावना, सच्चाई और दोस्ती का पाठ पढ़ाते हैं. स्लम सॉकर में बच्चों को 8 साल की उम्र से लिया जाता है. बड़ों के लिए अलग से ट्रेनिंग की व्यवस्था की गई है." बारसे कहते है, "वयस्कों के लिए हमारे पास अलग से स्कूल है. यहां पर हम उन्हें छोटे मोटे काम करने को कहते हैं. इसके पीछे हमारा मुख्य मकसद बच्चों और वयस्कों को काम और शिक्षा में व्यस्त रखना है. इस तरह हम अपराध में कमी ला सकते हैं और समाज को बेहतर बना सकते हैं."
नियमित अंतराल पर बच्चों के लिए अभ्यास सत्र चलाए जाते हैं ताकि उनके खेल का स्तर सुधर सके. स्लम सॉकर की टीम ने कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में हिस्सा लिया है. इसी साल अक्टूबर में होने वाले होमलेस वर्ल्ड कप में भी टीम खेलने के लिए जाएगी.
मुश्किल प्रयास
झोपड़पट्टी के बच्चों को फुटबॉल सिखाना उतना आसान भी नहीं था जितना कि बारसे ने शुरू में सोचा था. शुरुआत में तो झोपड़पट्टी के नेताओं के साथ समस्याएं पेश आती थीं. लेकिन सबसे ज्यादा समस्या हुई पैसा इकट्ठा करने में. बारसे कहते हैं, "भारत में अभी भी लोग पूछते हैं कि झोपड़पट्टी के बच्चों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल खेलने की क्या जरूरत है. ये दुर्भाग्य है लेकिन सच है कि भारत में खेल को अभी भी पैसे की बर्बादी समझा जाता है."
बहुत से बच्चों के पिता ने भी उनके फुटबॉल खेलने पर एतराज किया. इसके बदले वो उन्हें दिन भर की काम करने के लिए भेजते थे. लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनके दिल में फुटबॉल के लिए बहुत प्रेम है. 2008 में होमकांत नाम का एक लड़का हर किसी का विरोध सहते हुए स्लम सॉकर टीम में शामिल हुआ और उसने अच्छा भी किया. आज वो टीम के कोच की तरह काम करता है और राज्य स्तरीय मुकाबलों के लिए खेलता भी है.
लेकिन फुटबॉल खेलने के बावजूद गरीबी के चंगुल से बचने में कुछ ही बच्चे सफल हो पाते हैं. स्लम सॉकर संगठन बनाने के पीछे एक विचार ये भी था कि बच्चों को गरीबी के जाल से बाहर निकाला जाए. बारसे कहते हैं, "कुछ बच्चे असामाजिक काम करने लग जाते हैं जबकि कुछ दूसरों के साथ अनुशासन का मामला सामने आता है. उन सबको एक छत के नीचे इकट्ठा करना और उनके बीच दोस्ती की भावना पैदा करना बहुत आसान काम नहीं है."
हालांकि बारसे को इस बात की खुशी भी है कि उनकी मेहनत रंग ला रही है. टीम के कोच का पद संभाल रहे अखिलेश इस बात का बढ़िया उदाहरण हैं. स्लम सॉकर का हिस्सा बनने से पहले अखिलेश असामाजिक कामों में लगा था. पूरे देश भर के बच्चों का भविष्य निखारने के लिए अब स्लम सॉकर दूसरे संगठनों से भी सहयोग मांग रहा है. बारसे कहते हैं कि हमारा मकसद अधिक से अधिक बच्चों की मदद करना है.
रिपोर्ट: देबारती मुखर्जी/वीडी
संपादन: महेश झा