टैटू की छाप में छिपी है कला और संदेश कई
१७ जुलाई २००९मशहूर टैटू आर्टिस्ट और इस पर एक किताब लिखने वाले 39 साल के जेफ़ जॉनसन का कहना है कि टैटू की कला दिखती रहे या नहीं इससे फ़र्क नहीं पड़ता, मूल बात ये है कि इसमें काम करते हुए अपार आनंद मिलता है. टैटू मशीन : टॉल टेल्स, ट्रू स्टोरीज़, एंड माइ लाइफ़ इन इंक नाम की किताब के लेखक जॉनसन ओरेगोन में द सी ट्रैंप टैटू कंपनी के सह मालिक भी हैं.
18 साल से टैटू उकेरने का काम कर रहे जॉनसन का कहना है कि ये लोगों के सबसे निकटस्थ कला है. आप अजनबियों के साथ बैठते हैं, और उनकी राम कहानी सुनते हैं. कहां से आए. क्या करते हैं आदि आदि. और अपने शरीरों में टैटू गुदवाने वालों की संख्या में भी इज़ाफ़ा हो रहा है. और हर तबके, हर उम्र, हर समाज के लोग इसके शौकीन बने हैं.
एक आंकड़ें के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही 18 से 25 साल की उम्र वाले युवाओं में क़रीब 36 फ़ीसदी लोगों ने टैटू गुदवाए हैं. टैटू का शौक इतना सघन है कि जॉनसन बताते हैं कि छात्रों से लेकर डॉक्टर तक, मोटरसाइकिल जाबांज़ों से लेकर कार मैकेनिक तक, सब इसके दीवाने हैं. और तो और खेल, ग्लैमर और कला की दुनिया के सितारे टैटू के ख़ासे शौकीन रहे हैं.
टैटू आर्टिस्ट जॉनसन की सबसे दिलचस्प याद एक 88 साल की महिला को टैटू गोदने से जुड़ी है. वो बताते हैं कि उसे हड्डियों की बीमारी यानी ऑर्थराइटिस था. वो जेवरात पहनने में असमर्थ थी. लेकिन जॉनसन ने अपनी कलाकारी से उसकी कलाई में उसके एक कंगन की छवि उकेर दी. बूढ़ी महिला के लिए ये एक निजी सुख का मौका था.
जानकारों के मुताबिक वैयक्तिक और होमोजीनस होते पश्चिमी समाज में टैटू निजता और स्वच्छंदता का एक बड़ा प्रतीक माना जाने लगा है. और दूसरी बात ये है कि वो वैकल्पिक सामाजिक ढांचे का आधार बिंदु भी है. उसे गुदवाकर अपनी आज़ादी, अपने विकल्प, विरोध और अपने निजी रोमान का एक प्रतीकात्मक संदेश लोग देना चाहते हैं.
कई किस्मों के सामाजिक दबावों से निकलने और उनसे अलग दिखने की भी ये एक कोशिश समझी जाती है. यूं भारत के कई गांव देहातों में हाथ या आकृति या नाम गुदवाने की एक लोक परंपरा भी चली आ रही है. हालांकि इस लोक कला अभिव्यक्ति के इतर अतिरेकी दिखावट वाले टैटू को लेकर कोई बहुत खुली मान्यता ज़्यादातर समाजों में नहीं है. कई लोग अब भी इन चीज़ों पर नाक भौं सिकोड़ते हैं.
लेकिन जानकारों के मुताबिक लोग कुछ भी समझें, यही तो पॉप्यूलर कल्चर है कि यहां किसी एक आवाज़, किसी एक समाज या किसी एक नैतिकता का दबदबा नहीं रह सकता.
रिपोर्ट- एजेंसियां/शिवप्रसाद जोशी
संपादन- एस गौड़