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ताइवान के चुनावों पर चीन और अमेरिका की निगाहें

१३ जनवरी २०१२

ताइवान में शनिवार को नए राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा है. मुकाबला चीन समर्थक गुओमिंदांग पार्टी के राष्ट्रपति मा यिंग-जेऊ और चीन विरोधी विपक्षी दल की महिला उम्मीदवार साई इंग-वेन के बीच है.

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तस्वीर: dapd

चीन ताइवान को अपना विद्रोही प्रांत बताता है जबकि अमेरिका ताइवान की आजादी का समर्थन करता है. चीन और अमेरिका दोनों ही की ताइवान के चुनावों पर पैनी निगाहें हैं. यह आशंका भी है कि विपक्ष की जीत चीन के साथ फिर से रिश्तों को बिगाड़ सकती है. टक्कर कांटे की है, हालांकि अंतिम जनमत सर्वेक्षण में राष्ट्रपति मा आगे चल रहे हैं और उनकी गुओमिंदांग पार्टी को संसद में हल्का बहुमत मिलने के आसार हैं. मा ने चीन के साथ निकट आर्थिक और व्यापारिक रिश्ते बनाए हैं और अगर वे जीत जाते हैं तो वर्तमान स्थिति बनी रहेगी. उनकी विरोधी 55 वर्षीया साई ने अपनी पार्टी के आजादी समर्थक रवैये को नरम किया है लेकिन चीन उन पर भरोसा नहीं करता. उनका कहना है कि मुख्य भूमि के साथ मजबूत आर्थिक रिश्तों का लाभ हुआ है लेकिन उसमें जोखिम भी है. वे कहती हैं, ""चीन पर हमारी आर्थिक निर्भरता बढ़ सकती है, जिसकी हमें कीमत चुकानी पड़ सकती है.

Taiwan Wahl Ma Ying-Jeou nach dem Sieg
तस्वीर: AP

लोकतंत्र और चीनी संस्कृति

चीन के पड़ोस में हो रहा चुनाव दिखाता है कि लोकतंत्र चीनी संस्कृति के बीच भी फल फूल सकता है. साल शुरू होने के पहले ही चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ ने कम्युनिस्ट पार्टी के कैडरों को चीन पर पश्चिमी प्रभाव की चेतावनी दी थी. हू ने पार्टी मीडिया चिउशी में लिखा, "दुश्मन अंतरराष्ट्रीय ताकतें" चीन का पश्चिमीकरण करने के प्रयास में हैं. पश्चिमी देश चीन को सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं. राष्ट्रपति ने कहा कि चीन को अपने मूल्यों पर ध्यान देना चाहिए.

हू जिन ताओ द्वारा पश्चिमी और चीनी मूल्यों में अंतर करना उस बहस की याद दिलाता है जिसे सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली कुआन यिउ ने 1990 के दशक में शुरू किया था. उनका कहना था कि मेहनत, बचत, ऑथोरिटी की मान्यता, व्यक्ति के ऊपर समाज की प्राथमिकता पूर्व एशियाई आर्थिक चमत्कार का आधार हैं. सिंगापुर के प्रधानमंत्री के कहने का रुख यह था कि एशियाई मूल्य और पश्चिमी उदारवाद एक दूसरे से मेल नहीं खाते. ली के विचारों को खासकर मलेशिया और साम्यवादी चीन का काफी समर्थन मिला था.

Taiwan Wahl Mitglieder der Demokratischen Fortschrittspartei nach der Niederlage
तस्वीर: AP

चीन के लिए ताइवान का उदाहरण

जर्मनी के ट्यूबिंगेन विश्वविद्यालय में ग्रेटर चाइना स्टडीज के प्रोफेसर गुंटर शूबर्ट का कहना है कि एशियाई मूल्य शब्द के चुनाव के पीछे ली का मकसद अपनी सत्ता की वैधता को सुरक्षित करना था. चीनी सांस्कृतिक क्षेत्र में भी लोकतंत्र संभव है यह ताइवान का उदाहरण दिखाता है जहां 1980 में सैनिक तानाशाही ने अपने को कदम दर कदम लोकतंत्र में बदलना शुरू किया. 1986 में विपक्षी विचार के लोगों ने अपनी पार्टी डीपीपी बनाई. एक साल बाद राष्ट्रवादी गुओमिंदांग सरकार ने 38 साल बाद मार्शल लॉ समाप्त कर दिया. 1996 में राष्ट्रपति पद के लिए पहले स्वतंत्र चुनाव हुए. उसके बाद से ताइवान में लोकंतत्र फल फूल रहा है. 2000 में पहली बार ताइवान की स्थापना करने वाले गुओमिंदांग को विपक्ष से हारना पड़ा. जनता पिछले 15 सालों में दो बार सरकारों को बदल चुकी है. शनिवार को होने वाले चुनाव में यह तीसरी बार हो सकता है. संसद के बाहर सत्ता संघर्ष, उथल पुथल या कुव्यवस्था देखने को नहीं मिली है.

हाइडेलबर्ग के राजनीतिशास्त्री ऑरेल क्रोसां मानते हैं कि ताइवान में लोकतंत्र की प्रक्रिया का चीन पर भी असर हो रहा है. ऐसा दोनों देशों के लोगों के बीच बढ़ते मेलजोल के कारण हो रहा है. "ताइवान दिखा रहा है कि लोकतंत्र और चीनी संस्कृति एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं." साथ ही यह भी दिख रहा है कि लोकतंत्र का मतलब आर्थिक विकास का धीमा होना या अव्यवस्था नहीं है.

चीन पर हो रहा है असर

लेकिन ऐसा नहीं लगता कि चीन आने वाले दिनों में ताइवान के मॉडेल को स्वीकार करेगा. जर्मन विदेश नीति संस्थान के डाइरेक्टर एबरहार्ड जांडश्नाइडर इसे दोनों देशों के आकार के कारण भी मुश्किल मानते हैं. उनका कहना है कि डेढ़ करोड़ लोगों के देश में लोकतंत्र लाना 1.3 अरब आबादी वाले चीन के मुकाबले आसान है. चीन की सरकार भले ही सुधारों की प्रक्रिया शुरू करने के संकेत नहीं दे रही हो, चीन के बुद्धिजीवी लोकतंत्र पर खुली बहस कर रहे हैं.

2008 में बीजिंग विश्वविद्यालय के यू केपिंग ने लोकतंत्र को अच्छा बताते हुए एक लेख प्रकाशित किया था. इसमें लोकतंत्र के फायदे गिनाए गए हैं लेकिन साथ ही कहा गया है कि चीन विदेशी मॉडेल की कॉपी नहीं कर रहा है. पिछले साल कम्युनिस्ट पार्टी से संबद्ध ओवरसीज सोशल एंड फिलोसॉफिकल थ्योरिज सेंटर के डाइरेक्टर लाई हाईरोंग ने एक लेख लिखा जिसमें कहा गया है कि चीनी मूल्यों और उदारवादी लोकतंत्र में कोई विरोधाभास नहीं है. लाई का मानना है कि चीन अपने खुद की लोकतांत्रिक संस्थाएं खड़ी करेगा जिसमें चीनी मूल्यों और उदारवादी लोकतंत्र का सम्मिश्रण होगा. लेकिन वे यह नहीं बताते कि ऐसा कब होगा.

रिपोर्ट: क्रिस्टॉफ रिकिंग/मझा

संपादन: ए जमाल

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