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दम तोड़ती भाषाएं, जटिल होता समाधान

१३ नवम्बर २००९

भारत की कई भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 196 भाषाएं ऐसी हैं जिनके ग़ायब होने का ख़तरा है और विलुप्ति की ये दर दुनिया में सबसे ज़्यादा भारत में है. इनमें से अधिकांश क्षेत्रीय और क़बीलाई भाषाएं हैं.

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आपात स्तर पर प्रयास की ज़रूरततस्वीर: picture-alliance/dpa

ये भाषाएं अंग्रेज़ी और हिंदी के बढ़ते वर्चस्व के बीच हाशिए पर जा रही हैं. संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक और सांस्कृति संस्था यूनेस्को के हाल के एक अध्ययन के मुताबिक़ आदिवासी भाषाओं पर ख़तरा बढ़ता ही जा रहा है. और इन्हें बचाने की आपात स्तर पर कोशिशें करनी होंगी.

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आदिवासी भाषाओं पर मंडराता ख़तरातस्वीर: AP

कई भाषाविदों और विशेषज्ञों ने भाषाओं की विलुप्ति के इस संकट पर चिंता जताई हैं. दुनिया में सबसे तेज़ी से भाषाओं के ग़ायब होने की दर भारत में ही है. इसके बाद नंबर आता है अमेरिका का, जहां 192 ऐसी भाषाएं हैं और फिर तीसरे नंबर पर है इंडोनेशिया जहां 147 भाषाएं दम तोड़ रही हैं.

यूनेस्को के अध्ययन के मुताबिक़ हिमालयी राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड में क़रीब 44 भाषाएं-बोलियां ऐसी हैं जो जन-जीवन से गायब हो रही है. जबकि पूर्वी राज्यों उड़ीसा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में ऐसी क़रीब 42 भाषाएं विलुप्त हो रही हैं.

भाषाओं का इस भयानक तेज़ी के साथ अदृश्य होते जाना सामाजिक विविधता के लिए भी चिंता की बात है. 1962 के एक सर्वे में भारत में 1,600 भाषाओं का अस्तित्व बताया गया था और 2002 के आंकड़े बताते हैं कि 122 भाषाएं ही सक्रिय रह पाईं.

जानी मानी संस्कृतिकर्मी डॉक्टर कपिला वात्सायायन का कहना है कि यह समस्या गंभीर है और सरकार को शिक्षा ढांचे में इन दुर्लभ भाषा बोलियों को जगह देनी होगी. उनका कहना है कि जिस तरह से दुनिया में जैव विविधता सिकुड़ रही है उसी तरह भाषाई विविधता भी सिकुड़ रही है. उनके मुताबिक़ ये एक अत्यंत जटिल मामला है क्योंकि इसका अर्थ ये भी है कि इन भाषाओं को मान्यता देनी होगी और विधि सम्मत भी बनाना होगा.

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दुनिया के कई देशों में ख़तरा

माना जाता है कि बाज़ार की ज़रूरतों का भी भाषाओं के साथ इस खिलवाड़ में हाथ रहा है. कमी बुनियादी ढांचे या संसाधनों की नहीं है, कमी यही है कि इन भाषाओं को बाज़ार की स्वीकृति नहीं मिली है. लिहाज़ा ये शिक्षा के समूचे सिस्टम में भी नज़र नहीं आती हैं.

भाषाओं के बीच परस्पर आवाजाही को जहां भारत जैसे विविधता वाले देश में एक बौद्धिक सांस्कृतिक स्वीकार्यता मिली है, वहीं हिंदी के बढ़ते प्रचलन ने और हिंदी प्रदेशों के भीतर मुख्य भाषा के रूप में हिंदी की वर्चस्ववादी उपस्थिति ने उसी की उपभाषाओं और बोलियों का गला घोंटा है.

हिंदी आदिम समाजों की मातृभाषाएं मुख्यधारा से बेदख़ल की गई हैं. कला और सांस्कृतिक विरासत के लिए भारतीय राष्ट्रीय ट्रस्ट की कमलिनी सेनगुप्ता का मानना है कि बाज़ार शक्तियां, इन भाषाओं के विकास में रुकावट बनी हुई हैं. उनका कहना है कि भारत सरकार उस भाषा को मान्यता नहीं देती जिसे बोलने वाले लोगों की संख्या दस हज़ार से कम हो. इसका अर्थ यह है कि इन भाषाओं को तरक्की के लिए कोई संसाधन हासिल नहीं होते और उन्हें मान्यता का तो सवाल ही नहीं.

कमलिनी कहती है कि इसीलिए इन भाषाओं का पहला संघर्ष तो मान्यता के लिए ही होता है. फिर उन्हें कुछ संसाधन मिल सकते हैं, शायद स्कूलों की पढ़ाई में जगह मिल जाए. कमलिनी का कहना है कि इस सारी बहस में बात वहीं अटक जाती है कि जो छात्र इन भाषाओं में पढ़ेगें उन्हें आखिरकार नौकरियां तो मुख्यधारा की भाषाओं में ही मिलेंगी.

यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर की भाषाओं में एक तिहाई सब सहारा अफ़्रीकी क्षेत्र में बोली जाती हैं. आशंका है कि अगली सदी के दौरान इनमें से दस फ़ीसदी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी.

भाषाविदो और नीति नियंताओं के इतर भाषाओं को दुर्लभता के कगार से खींच लाने में आख़िर और किसकी भूमिका हो सकती है. तो इस पर जानकारों की राय में समाजों, जातियों, समुदायों और निजी कोशिशों को भी आगे आना होगा.

रिपोर्ट : मुरली कृष्णन, नई दिल्ली

संपादन : एस जोशी