दीवार के साथ-साथ फ़ाइलें भी खुली
३० अक्टूबर २००९योआखिम फ़्रिच की उम्र थी 17 साल. पचास के दशक में जब एक बार वह पुलिस के पूछने पर आइडेंटिटी कार्ड नहीं दिखा सका, तो उसे पता ही नहीं था कि इसकी इतनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. ज़िंदगी भर उसे अचरज होता रहा कि उसे युनिवर्सिटी में दाखिला क्यों नहीं मिला, नौकरी में प्रोमोशन क्यों नहीं मिला. देश के एकीकरण के बाद जब पूर्वी जर्मन गुप्तचर संस्था श्टाज़ी की फ़ाइलें खुली, और सबको अपनी फ़ाइल देखने का मौका मिला, तो उसने भी सोचा कि देखा जाए उसके बारे में क्या लिखा गया था. आर्काइव जाने पर पता चला कि उसके नाम पर बनी फ़ाईल में 400 पन्ने थे.
निपटा नहीं है मसला
श्टाट्सज़िषरहाइट, या श्टाज़ी की स्थापना जीडीआर की स्थापना के एक साल बाद 1950 में की गई थी. इसके दसियों लाख नियमित कर्मचारी व इनफ़ार्मर थे. देश के एकीकरण के बाद 1992 में इसकी फ़ाइलों को संबद्ध नागरिकों के लिए खोला गया. योजना थी कि दस साल तक यह सुविधा दी जाएगी. लेकिन नागरिकों के आवेदन पत्र आते गए, और इसे खोले रखने का निर्णय लिया गया. सन 2009 की पहली तिमाही में पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 11 प्रतिशत अधिक आवेदन आए हैं. आर्काइव की केमनित्ज़ शाखा के प्रमुख मार्टिन बोएटगर कहते हैं कि ये जनता की चेतना में बनी हुई हैं, इन पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं, किताबें लिखी जा रही हैं.
मुझे तो तुम सबसे प्यार है
पूर्वी जर्मनी में आए परिवर्तन के ज्वार से पहले एरिष मील्के श्टाज़ी के सर्वाधिनायक थे. वे शासक कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च अंग पोलिटब्युरो के सदस्य थे, और उन्हें पार्टी के महासचिव एरिष होनेकर के बाद सबसे ताकतवर नेता माना जाता था. परिवर्तन का दौर शुरू होने के बाद पूर्वी जर्मन संसद में भी उसकी प्रतिध्वनि सुनाई दी थी, और देश के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री की हैसियत से उन्हें संसद के सामने भाषण देना पड़ा था. सांसदों के तीखे सवालों के जवाब में उन्होंने कहा था - इतने नाराज़ क्यों होते हो, मुझे तो तुम सबसे प्यार है ! उनका यह वाक्य पूर्वी जर्मन गुप्तचर संस्था श्टाज़ी की भूमिका का मुहावरा बन चुका है.
दूसरों की ज़िंदगी
श्टाज़ी की भूमिका व उसके साथ जुड़े हुए पात्रों की मानसिकता पर बनी फ़िल्म दूसरों की ज़िंदगी को सन 2006 में ऑस्कर से पुरस्कृत किया गया था. इसमें श्टाज़ी के एक अफ़सर की कहानी बताई गई है, जो एक लेखक के घर में इलेक्ट्रानिक पुर्जे लगाकर जासूसी करता रहता है, और फिर धीरे-धीरे उसके मन में उस लेखक के प्रति सहानुभूति पनपने लगती है, और वह प्राप्त सूचनाओं में फ़ेरबदल कर उसे बचाता है. श्टाज़ी की फ़ाइलों से अगर मुखबिरों के बारे में पता चलता है, तो उसमें अक्सर यह भी दर्ज रहता है कि कौन से लोग संबद्ध नागरिक की मदद कर रहे थे.
पीड़ितों के पुनर्वास का ज़रिया
बहुतेरे लोग इन फ़ाइलों को इसलिए भी देखते हैं और उसकी नकल प्राप्त करते हैं, ताकि पूर्वी जर्मनी में उन पर हुए अत्याचारों के सबूत मिल सके. योआखिम फ़्रिच कहते हैं कि तानाशाही में घटी बातों के सबूत नहीं मिलते. श्टाज़ी आर्काइव के दस्तावेज़ के ज़रिये पता लगता है कि किसी नागरिक पर क्या गुज़रा था. फ़्रिच को भी दो बार गिरफ़्तार किया गया था. श्टाज़ी आर्काइव के अलावा इन गिरफ़्तारियों के कोई सबूत नहीं हैं. एकीकरण के बाद इन दस्तावेज़ों के आधार पर लोगों को मुआवज़े दिए जा रहे हैं.
इसके अलावा इन दस्तावेज़ों से पूर्वी जर्मन तंत्र के चरित्र, उसकी संरचनाओं का भी सही परिचय मिलता है, क्योंकि एक तरीके से यह उस तंत्र की आत्मकथा है.
रिपोर्ट: उज्ज्वल भट्टाचार्य
संपादन: एस गौड़