दुनिया भर के कबाड़ी जहाजों का गंदा धंधा
१९ जून २०११यह एक भूतहा चित्र जैसा दिखाई पड़ता है, जहां कबाड़ी जहाज लाइन से गुजरात के आलांग में किनारे पर लगे हैं. कुछ जहाजों का सिर्फ ढांचा भर है. 170 से ज्यादा जलपोत 12 किलोमीटर लंबे किनारे पर अटे हुए हैं. तेल, धुएं और धूल की दुर्गंध फैली हुई है. पानी की सतह पर कई जगह गाढ़ा, चिपचिपा, भूरा पदार्थ तैर रहा है.
दुनिया के सबसे बड़े कबाड़ी जहाजों के बंदरगाह पर व्यस्त समय में तीस हजार लोग एक साथ काम करते हैं. इनमें से कुछ ही के कानों पर हेडफोन लगा होता है ताकि वे कनफोड़ू आवाजों से बच सकें. यह आवाजें बड़ी बड़ी क्रेन्स और भारी मशीनों के कारण होती हैं. यहां काम करने वाले अधिकतर लोग भारत के गरीब राज्यों, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश से काम की तलाश में आते हैं. कई लोग लिखना-पढ़ना नहीं जानते. इन्हें महीने में करीब 9,000 रुपये मिलते हैं. कनफोडू शोर, तेल, धुएं की दुर्गंध के बीच ये लोग हफ्ते में छह दिन रोजाना 12 घंटे काम करते हैं. दिन में तीन बार लंबा ब्रेक होता है. इनमें से अधिकतर अस्थाई चार दीवारी में रहते हैं जहां पानी की भी सुविधा नहीं है. बीस साल से बन रहे ये घर अभी तक बने ही नहीं है, जबकि कायदे से इन मजदूरों को अब तक स्थायी निवास मिल जाने चाहिए थे.
भ्रष्ट अधिकारी
वकील विपुल संघवी इंडस्ट्रियल लॉ के जानकार हैं. पिछले बीस साल में उन्होंने आलांग बंदरगाह पर काम करने वाले मजदूरों की अदालत में पैरवी की है. वह कहते हैं, "आलांग में अकसर दुर्घटनाएं होती हैं क्योंकि जहाज से तेल निकालने से पहले ही उसे तोड़ने का काम शुरू कर दिया है. वैसे तो यह गैर कानूनी है. लेकिन तेल निकाल लेने से मालिकों को बड़ा नुकसान होगा क्योंकि इसमें कम से कम एक महीना लग सकता है. तो मालिक अधिकारियों को रिश्वत दे कर जहाज तोड़ने की अनुमति ले लेते हैं. लेकिन जब जहाज के तेल में आग लग जाती है तो कई बार विस्फोट का खतरा होता है और वहां काम कर रहे लोग गंभीर रूप से जल भी सकते हैं."
संघवी बताते हैं कि हर साल कम से कम 60 लोगों की यहां काम के दौरान मौत होती है लेकिन आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक चार या पांच ही दुर्घटनाएं जानलेवा साबित होती हैं. उद्योगपति कमलकांत शर्मा इस बारे में कुछ नहीं जानना चाहते. वह दावा करते हैं, "पिछले पांच साल में आलांग में हालात काफी ठीक हुए हैं." शर्मा खुद भी एक शिपयार्ड के मालिक हैं.
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हालात और कम मजदूरी को वह मीडिया का फैलाया हुआ मिथक बताते हैं. वह कहते हैं, "1983 में जब हमने आलांग में शिपयार्ड्स बनाने शुरू किए तब इन जहाजों को तोड़ने वाले सामान्य कबाड़ी थे, जो सिर्फ लाभ के बारे में सोचते थे. फिलहाल इन शिपयार्ड के मालिक इंजीनियर्स या फिर मार्केटिंग पढ़े हुए लोग हैं, तो उनकी सोच भी अलग है." शर्मा दावा करते हैं कि वह अपने किसी भी कर्मचारी को हेलमेट,जूते, आंखों की सुरक्षा के लिए चश्मा, दस्ताने के बिना अंदर नहीं घुसने देते. कई जगहों पर तख्तियां देखी जा सकती हैं जहां लिखा है, 'पहले सुरक्षा' या 'सुरक्षा ही हमारा लक्ष्य है'.
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
2006 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम फैसला सुनाया. फ्रांस की नौसेना का एक विमान ले जा सकने वाले जहाज क्लेमॉन्सो को आलांग में तोड़ना चाहते थे. लेकिन पर्यावरण संगठन ग्रीन पीस ने क्लेमॉन्सो के एस्बेस्टस यानी अदह, संखिया, डाई ऑक्सीन और कई भारी धातुओं से प्रदूषित होने के कारण विरोध प्रदर्शन किया. इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने न केवल क्लेमॉन्सो के आलांग में तोड़े जाने पर रोक लगाई बल्कि अंतरराष्ट्रीय कर्मचारी संगठन आईएलओ के नियमों को तोड़ने पर कड़ी सजा का प्रावधान भी किया.
वकील संघवी कहते हैं कि भारत में कानून समस्या नहीं है लेकिन उसका क्रियान्वयन बड़ी समस्या है. वह कहते हैं, "यह बहुत शर्म की बात है कि 40 किलोमीटर दूर भावनगर के जिला न्यायालय में सिर्फ आलांग से जुड़े करीब 7,000 मामले लटके पड़े हैं क्योंकि या तो जज नहीं हैं या फिर मुकदमे के दौरान सही प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ है." संघवी कहते हैं कि वैसे ही कम मजदूर मुकदमा करते हैं. अधिकतर को तो अपने अधिकार ही पता नहीं होते.
कड़ी प्रतिस्पर्धा
आलांग में जहाज तोड़ने वालों के लिए अस्तित्व का सवाल है. दुनिया भर से 40 फीसदी खराब या पुराने जहाज आलांग में आते हैं. भारत में इस्तेमाल किए जाने वाले स्टील का पांच प्रतिशत आलांग से रिसाइकलिंग से आता है. लेकिन इन शिपयार्ड के आसपास करीब एक किलोमीटर तक छोटी छोटी दुकानें हैं, जहां लाइफ बोट, टॉयलेट सीट, एश ट्रे से लेकर कई चीजें मिल जाती हैं. बांग्लादेश के चटगांव और पाकिस्तान के गदनी में रिसाइकलिंग का काम तेजी से बढ़ रहा है, इसलिए कर्मचारियों को डर है कि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मानकों के कारण आलांग में जहाज तुड़वाना कई लोगों के लिए महंगा साबित हो सकता है.
कैलाश सिए उड़ीसा से हैं. वह हैं तो 28 साल के लेकिन देखने पर 40 के दिखाई पड़ते हैं. दुबले पतले हैं और सुबह 10 बजे ही उनकी वर्दी पसीने में तर होती है. वह कहते हैं, "मैं जहाजों से स्टील की शीट ट्रकों में चढ़ाता हूं. यह शीटें अक्सर बहुत भारी और तीखी होती हैं लेकिन ईश्वर की कृपा से मैं बचा हुआ हूं." 15 साल से कैलाश आलांग में काम कर रहे हैं. कानूनन 18 साल से कम उम्र का कोई व्यक्ति यहां काम नहीं कर सकता. संघवी कहते हैं, "कई लोग गलत दस्तावेजों के साथ यहां काम करते हैं. बिना पढ़ाई लिखाई किए वह गांव से यहां काम करने के लिए आ जाते हैं क्योंकि कई बच्चों वाला परिवार सिर्फ खेती से नहीं चल सकता."
सामाजिक दबाव के कारण कई किशोर आलांग काम करने आते हैं. इन टूटे फूटे जहाजों पर कड़ी मेहनत करना ही उनके लिए पैसा कमाने का इकलौता जरिया है.
रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न/आभा मोंढे
संपादनः ए कुमार