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धान की खेती पर जर्मन फिल्म

२८ सितम्बर २०१२

कमरे में टेबल कुर्सी पर बैठकर रिसर्च करना भारत की जानकार और कोलोन में रहने वाली उलरीके निकलास को पसंद नहीं. गर्मी की छुट्टियां वे दक्षिण भारत और कंबोडिया में बिताती हैं ताकि ग्रामीण लोगों को समझ सकें.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

उलरीके निकलास अब जर्मनी के कोलोन विश्वविद्यालय में भारतविद्या और तमिल की प्रोफेसर हैं लेकिन उनका भारत प्रेम पुराना है. जब वे डॉक्टरेट कर रही थीं तभी वह साइकिल पर भारत के दौरे पर निकलीं और दूरदराज गांवों में लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवहार पर जानकारी इकट्ठा की.

बाद में उन्होंने एक भारतीय को ही अपना जीवनसाथी चुना. इस समय वे दक्षिण भारत के गांववासियों के लिए धान की खेती के महत्व पर एक डॉक्यूमेंट्री पर काम कर रही हैं. पेश है उनसे बातचीत के अंशः

डीडब्ल्यू: आप चावल की खेती पर फिल्म बना रही हैं और शायद जब एशिया के दौरे पर होती हैं तो खुद भी बहुत चावल खाती हैं. क्या चावल के दाने आपके सपने में भी कूदते हैं?

उलरीके निकलास: हां, वे ऐसा कर रहे हैं, और वह भी काफी सालों से. यदि कोई मेरी तरह अकसर दक्षिण भारत या दूसरे चावल उपजाने वाले देश के दौरे पर जाता है तो सचमुच कभी न कभी चावल का सपना देखने लगता है. अपने शोध के बारे में मैं कह सकती हूं कि मैंने कुछ समय पहले दक्षिण भारत में एक चार साल का प्रोजेक्ट किया. इसके अलावा मैं पिछले दो तीन साल से कंबोडिया की ग्रामीण संस्कृति का गहराई से अध्ययन कर रही हूं. इसलिए मेरे मन में चावल पर दस्तावेजी फिल्म बनाने का विचार आया क्योंकि मैंने देखा कि कंबोडिया में चावल की खेती और उसका इस्तेमाल दक्षिण भारत से एकदम अलग होता है.

आपकी दस्तावेजी फिल्म किनके लिए है?

मैंने कई दूसरे विषयों पर दस्तावेजी फिल्में बनाई हैं. मेरी फिल्में मुख्य रूप से यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए होती है. यह ऐसी फिल्में हैं जिनका इस्तेमाल मैं अपनी क्लास में पढ़ाने के लिए करती हूं और थोड़ी फीस लेकर दूसरी यूनिवर्सिटियों को बेचती हूं. वे मुख्य रूप से छात्रों की पढ़ाई के लिए हैं.

आप अपने छात्रों को चावल की खेती के बारे में क्या बताना चाहती हैं?

वे फिल्म के जरिये देख सकते हैं कि चावल की खेती उन गांवों में लोगों को कितना प्रभावित करती हैं, जहां वे उपज का केंद्र हैं. इसके अलावा फिल्म यह भी दिखाती है कि चावल की खेती बहुत मेहनत वाली और मुश्किल है. इसलिए वह गांव के पूरे ढांचे को प्रभावित करती है. इसके अलावा मेरी फिल्म में लोगों की निजी जिंदगी भी दिखती है. मैं दिखाती हूं कि उनका रसोईघर कैसा है, वे चावल कैसे पकाते हैं और उसके साथ क्या खाते हैं. वे चावल को दूसरे अनाजों के साथ कैसे इस्तेमाल करते हैं.

भारतशास्त्री के रूप में आप सालों से भारत और कंबोडिया जाती रही हैं. क्या यह प्रोफेसर के रूप में आपके काम का हिस्सा है?

मेरी राय में निश्चित तौर पर. भारतविद्या ऐसा विषय है जिसे 250 साल तक विशुद्ध भाषाशास्त्र समझा गया है, इसलिए सिर्फ भाषा और साहित्य का अध्ययन किया गया है. लेकिन पिछले दो तीन दशकों से स्थिति बदली है, आज के विज्ञानी गांव के जीवन में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं और फील्ड स्टडी भी ज्यादा हो रही है. वे देहाती जीवन, लोगों के रोजमर्रे, उनकी संस्कृति और स्थानीय धार्मिकता का अध्ययन कर रहे हैं.

आपको भारत और कंबोडिया के गांवों के अध्ययन में क्या दिलचस्प लगता है?

मैं जब पढ़ रही थी तभी से इसमें मेरी दिलचस्पी थी और डॉक्टरेट करने के दौरान मैं साइकिल पर गांवों में जाती और लोगों से बातें करती. सालों से मैं गांव के देवता और मंदिरों की कहानियां जमा कर रही हूं. इसके बारे में भी कि खास त्योहार क्यों मनाए जाते हैं और रीति रिवाज कैसे बने. मैं इसे बहुत दिलचस्प मानती हूं.

क्या आप अपने स्टडी ट्रिप पर छात्रों को भी साथ ले जाती हैं?

मैं दक्षिण भारत में रची बसी हूं. मैं ने एक दक्षिण भारतीय से शादी की है और पांडिचेरी के निकट एक गांव में मेरा घर है. उसके साथ एक छोटा संस्थान जुड़ा है जहां हम मार्च और सितंबर में समर स्कूल चलाते हैं. एक समर स्कूल के दौरान मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति और धर्म के अलावा राजनीति और अर्थव्यवस्था का परिचय दिया जाता है, जबकि दूसरे में तमिल भाषा सीखी जा सकती है.

ऐसा लगता है कि एशिया आपका दूसरा घर बन गया है. यदि आपको कोलोन और कंबोडिया में चुनना पड़े तो क्या चुनेंगी?

बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है. निश्चित तौर पर कंबोडिया.

इंटरव्यू: सबीने डामाश्के/एमजे

संपादन: ए जमाल