नए भारत के नायक नेहरू
१४ नवम्बर २००९गुलामी और उत्पीड़न से दबे कुचले समाज में नई जान फूंकने के अलावा एक बड़ा काम था राष्ट्रीय स्वाभिमान को खड़ा करने का. और ये काम नेहरू ने अपनी अविश्वसनीय-सी प्रतिभा के दम पर कर दिखाया. इस स्वाभिमान के ताने बाने को उन्होंने अखिल देश की सांस्कृतिक सामाजिक चेतना से जोड़ा और एक बिरली अंतरराष्ट्रीयता से भी.
बदहाल देश की नई तस्वीर
नेहरू ने भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि निखारने का जो काम उन तमाम बीहड़ हलचलों के बीच किया उसके लिए भी वो याद किए जाते हैं. नेहरू की 120वीं जयंती पर ये अनायास नहीं है कि वे याद आते हैं. इसलिए भी कि भारत आज विश्व मंच पर जिस भूमिका में है, उसका ढांचा, उसका स्वरूप, उसका चिंतन नेहरू का ही बनाया हुआ था. क्या अमेरिका, क्या एशिया क्या, यूरोप; नेहरू अपने समय में एक साथ सारी दुनिया की राजनैतिक, कूटनीतिक और सामरिक धड़कनों के केंद्र में थे.
भारत के सामने गुलामी के लंबे साए के बाद अपने पांव पर खड़े होने का जो सबसे फौरी काम था वो जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में शुरू हुआ. एक तरफ़ बदहाल ग़रीब जनता, बिखरे हुए राज्य, घराने, रियासतें. उद्योग और माली हालत की जर्जरता. और इन सबके बीच विभाजन की खाई जिसमें ख़ून, प्रतिहिंसा और लाशें भरी थीं. नेहरू के सामने इस टूटी हुई, बिखरी हुई और लहुलूहान तस्वीर की जगह एक नया भारत बनाने की चुनौती थी. अपनी टीम के साथ वो जुट गए. और धीरे धीरे नया भारत उभरने लगा.
नेहरू ने एक साथ कई मोर्चे खोले. उन्होंने भारी उद्योगों की संरचना तैयार की और विदेशों का दौरा शुरू किया. मशीनें आईं और देश में एक नई धड़कन का संचार हुआ. भिलाई, बोकारो, राउरकेला में मशीनों की आवाज़ें गूंजने लगीं. उधर भाखड़ा में पानी को बांधने का काम शुरू हुआ बिजली के लिए. नेहरू के सपनों वाले भविष्य के मंदिर तैयार हो रहे थे.
नेहरू लगातार विदेश दौरे करते रहे और नई तकनीकों नए निवेशों को खोजते रहे. और इसी सब के बीच उन्होंने विश्व नेताओं को अपने राजनैतिक-कूटनीतिक अभियान से भी आकर्षित किया. वो अमेरिका के दोस्त बने. वो चीन के दोस्त बने. समूचे एशिया की एक मुखर शख़्सियत के रूप में उभरे. उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ को दोस्त बनाया और यूरोप में अपनी कूटनीतिक दूरदर्शिता का लोहा मनवाया.
नेहरू की पहल
नेहरू की अगुवाई में भारत पहला देश था जिसने दूसरे विश्व युद्ध के खात्मे और हिटलर के पतन के बाद जर्मनी के साथ औपचारिक युद्ध की स्थिति ख़त्म करने की घोषणा की. पश्चिम जर्मनी को मान्यता दी और उससे राजनैतिक संबंध बढ़ाए. इसी दौरान पूर्वी जर्मनी में भी अपना सिक्का बुलंद किए रखा. अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों की नई कहानी लिखी जाने लगी. नेहरू के बारे में उनके आलोचक कहते थे कि देश से ज़्यादा चिंता उन्हें दुनिया की है. लेकिन नेहरू अपनी विकट महत्वाकांक्षाओं के बीच विश्व राजनेता के तमाम गुणों से भरपूर थे. इंडोनेशिया पर डच हमले को लेकर वो दौर इतिहास में दर्ज है कि कैसे नेहरू ने आनन फानन में नई दिल्ली में एशियाई देशों का एक सम्मेलन बुलाया और एक निंदा प्रस्ताव तैयार किया गया, जिसे संयुक्त राष्ट्र भेजा गया और उसे स्वीकार भी किया गया. इंडोनेशिया की संप्रभुता की रक्षा की गई.
अनेक मिसालें हैं. वियतनाम की कहानी हो या किसी ग़रीब अफ़्रीकी मुल्क की या अमेरिका की नाक के नीचे बसे छोटे से द्वीप देश क्यूबा की. नेहरू जैसे राष्ट्रीय संप्रभुता, मानवाधिकार, न्याय और राष्ट्रों के बीच सामान अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय झंडाबरदार बन गए थे.
पश्चिमी जर्मनी, पूर्वी जर्मनी और नेहरू
नेहरू के आलोचक ये भी कहते रहे हैं कि यूरोप के साथ वो उतना दोस्ताना नहीं बना पाए जितना उन्होंने दूसरे देशों के साथ किया और चीन जैसे पड़ोसी के साथ. लेकिन ये भी एक तथ्य है कि यूरोप में उस दौर में दोनो जर्मनी नेहरू को सम्मान की निगाह से देखते थे. भारत की संस्कृति और कला के यूरोप में प्रवेश का जो रास्ता जर्मन चिंतकों, दार्शनिकों और प्राच्यविदों ने तैयार किया था, उसी रास्ते से गुज़रते हुए जर्मन राजनीतिज्ञ भी भारत में संभावनाओं की एक मज़बूत और दूर तक जाती पगडंडी की तलाश कर रहे थे. ये अकारण नहीं है कि आज जर्मनी भारत का पांचवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है.
नेहरू ने व्यापक पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन की जो आंधी फैलाई उससे भी जर्मन समाज बड़ा प्रभावित रहा है. टेलीकॉम, इंजीनियरिंग, पर्यावरण तकनीक, रसायन, दवाइयां और फूड प्रोसेसिंग जैसी विधाओं में जर्मन योगदान अभूतपूर्व है. इन सबके बीच दोनों देशों में उत्पादन की जो बेजोड़ सामर्थ्य है वो दोनों को एक दूसरे के नज़दीक ले आई. आपको बता दें कि भारत में 80 फ़ीसदी जर्मन निवेश उत्पादन क्षेत्र में ही है और ये चोटी की कंपनियां हैं.
1951 में नेहरू ने पश्चिम जर्मनी से कूटनीतिक संबंध स्थापित किए. लेकिन वो दौर शीत युद्ध की आहट का दौर था, आने वाले दिनों में जिसे और सघन होना था. नेहरू अंतरराष्ट्रीय राजनीति की इसी कशमकश और पेचीदगी में पश्चिम जर्मनी के कभी पास आते रहे कभी दूर जाते रहे. लेकिन व्यापार और सांस्कृतिक आवाजाही बनी रही. पश्चिम जर्मनी यदि नैटो के ज़रिए तेज़ी से अमेरिका और सोवियत संघ के बीच यूरोप में एक ताक़तवर मौजूदगी बन गया तो नेहरू ने भी भारत को अलग रास्ते पर ले जाने का फ़ैसला किया. ये रास्ता गुटनिरपेक्षता का था यानी एक तीसरी डगर. नेहरू ने सोवियत संघ और अमेरिका से समान आधार पर नज़दीकी भी रखी और दूरी भी. वो पश्चिम जर्मनी के दबदबे से प्रभावित नहीं हुए तो पूर्वी जर्मनी भी उन्हें अपना खेमाबरदार नहीं बना पाया.
हॉलश्टाइन सिद्धांत
पूर्वी जर्मनी के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्तों का मुद्दा विवाद में भी रहा. पश्चिम जर्मनी के हॉलश्टाइन सिद्धांत की वजह से ऐसा हुआ था. पश्चिम जर्मन सरकार के उच्चाधिकारी वाल्टर हॉलश्टाइन की देखरेख में एक कूटनीतिक फ़ैसला किया गया था कि पश्चिम जर्मनी ऐसे किसी देश से कूटनीतिक रिश्ते नहीं जोड़ेगा जो पूर्वी जर्मनी को मान्यता देगा. लेकिन बाद के दौर में पश्चिम जर्मनी को अपना ये विवादास्पद फ़ैसला रद्द करना पड़ा क्योंकि दो ध्रुवीय विश्व के उस दौर में उसकी कूटनीतिक मजबूरी थी सोवियत संघ से रिश्ते रखना. एक सिद्धांत की छाया में एक कम्युनिस्ट देश से तो रिश्ते रखना और किसी दूसरे से न रखने के विरोधाभास ने आखिरकार पश्चिम जर्मनी को इस सिद्धांत को तिलांजलि देने पर विवश कर दिया. 1969 में तत्कालीन चांसलर विली ब्रांड्ट की सरकार ने इस सिद्धांत को ठंडे बस्ते में डाल दिया और पूर्वी जर्मनी से एक ख़ास रिश्ता विकसित करने की पहल शुरू की. भारत ने पूर्वी जर्मनी से औपचारिक रिश्ते नेहरू के समय में ही शुरू तो कर दिए लेकिन कम्युनिस्टों के शासन वाले पूर्वी जर्मनी को आखिरकार मान्यता 1972 में जाकर दी, जब नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं. भारत ने यह मान्यता भी तब दी, जब दोनो जर्मन देशों के बीच संबंधों का नियमन करने वाली तथाकथित आधारभूत संधि पर हस्ताक्षर बस होने ही वाले थे.
अंतरराष्ट्रीय मामलों में नेहरू की दूरदर्शिता निर्विवाद थी. जर्मनी के मामले में वो घटनाक्रम पर बारीकी से नज़र रखे रहे. हिटलर की बर्बरताओं को वो देख चुके थे और उसके बड़बोलेपन को भी. 22 जून 1941 को जब नात्सी सेना ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया तो हिटलर ने सोचा था कि वो दस सप्ताह में ही सोवियत संघ पर कब्ज़ा कर लेगा. रूज़वेल्ट और चर्चिल को लगता था कि उससे भी कम यानी सात या आठ सप्ताह में ही हिटलर की जीत तय है. लेकिन कहा जाता है कि ब्रिटिश भारत वाले उस दौर में भी नेहरू अकेले नेता थे जिन्होंने कहा था कि हिटलर रूसी फौजों को कभी नहीं हरा पाएगा. और यही हुआ. सोवियत संघ ने नात्सी सेना को कुचल दिया और जर्मनी को बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया. नेहरू की यही दूरदर्शिता और समझ की गहनता उन्हें विश्व नेताओं की सबसे अगली पंक्ति में खड़ा करती है.