'नाच गाने के बिना अधूरी हैं भारतीय फिल्में'
२० जुलाई २०१२इस तरह के अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में आमंत्रित किया जाना आपके लिए क्या मायने रखता है?
सबसे पहली बात है जिम्मेदारी. उसके बाद, यह एक ऐसा अनुभव है जिससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है. हम जहां काम करते हैं वहां हमें एक जैसी सोच वाले लोग नहीं मिलते, क्योंकि अगर मैं किसी फिल्म में अभिनय कर रही हूं, तो मैं फिल्म के निर्देशक से और अन्य अभिनेताओं से मिलती हूं; अगर मैं निर्देशन कर रही हूं तो मैं निर्माता से और अभिनेताओं से मिलती हूं. लेकिन ऐसा केवल एक फिल्म फेस्टिवल में ही हो पाता है कि आप अलग अलग तरह के सिनेमा को चाहने वाले लोगों से मिलते हैं.
मैं खुद भी भारत में एक फेस्टिवल के आयोजन से जुड़ी हूं. चेन्नई फिल्म फेस्टिवल का यह दसवां साल है. इसलिए जब भी मैं किसी फेस्टिवल में आती हूं तो मेरे लिए यह कुछ नया सीखने जैसा होता है. यहां केवल 12 लोग फेस्टिवल का आयोजन कर रहे हैं. लेकिन वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. अगर आप गोवा फिल्म फेस्टिवल को देखेंगे, करीब 500 लोग उस से जुड़े हुए हैं.
आयोजन के अलावा आपके मुताबिक भारतीय फिल्म फेस्टिवल इस तरह के अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल से किस तरह से अलग हैं?
मेरे ख्याल से भारत में फिल्म देखने वाले लोगों की संख्या काफी ज्यादा है इसलिए वहां उसका असर पड़ता है. लेकिन इस तरह के फेस्टिवल में कुछ अलग ढूंढा जाता है. एक अच्छी फिल्म को तो यहां भी अच्छा कहा जाएगा और बेकार को बेकार. उसमें कोई फर्क नहीं है. भारत में पश्चिमी फिल्मों को लेकर जो दीवानगी है, वह शायद यहां नहीं है. आकर्षण पूर्वी देशों और भारतीय सिनेमा को लेकर है.
क्या आपको लगता है कि पश्चिम में बॉलीवुड के बारे में यह राय है कि वह केवल शाहरुख या नाच गाने तक ही सीमित है?
सिनेमा के सच्चे चाहने वाले को बॉलीवुड और अच्छे सिनेमा में फर्क पता होगा और उसे बॉलीवुड में अच्छे फिल्मों की भी जानकारी होगी. वह व्यक्ति जिसे बॉलीवुड की केवल ऊपरी सतह पर ही जानकारी है, वही इस तरह की धारणाएं बना सकता है. अगर आप सिनेमा को लेकर संजीदा हैं तो आप जानते हैं कि कौन सी फिल्म कैसी है. अगर आप ईरानी सिनेमा को देखेंगे, तो मकमल बफ और अब्बास कियारोस्तामी की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा काम नहीं कर पा रही हैं. लेकिन एक आम ईरानी को उनकी फिल्मों और सफल फिल्मों के बीच का फर्क पता होगा. इसी तरह से मेरे ख्याल से जिस किसी को भी सिनेमा से प्यार है, वह बॉलीवुड का मजाक नहीं बना सकता. हां, पहले ऐसा हुआ करता था. जब मेरे पति की फिल्में अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में जाती थीं तो लोग गानों का मजाक उड़ाया करते थे. पर अब वे उन्हें बेहद पसंद करते हैं. उन्हें यह कहने में शर्म महसूस नहीं होती.
मणिरत्नम की फिल्मों की अगर बात की जाए, वे अक्सर संजीदा और आम जीवन से जुड़े हुए मुद्दों पर आधारित होती हैं, फिर भी नाच गाने से वे दूर नहीं रह पाती. क्या यह एक मजबूरी है कि अगर मुझे अपनी फिल्म को आम लोगों तक पहुंचाना है, तो इन्हें फिल्म में रखना ही होगा?
गाने भारत के लोगों का एक अहम हिस्सा हैं. हमारे यहां हर मौके के लिए गाने होते हैं. मैं उत्तर भारत के बारे में तो नहीं जानती, लेकिन दक्षिण में जब किसी की मौत हो जाती है, तब घर के बाहर लाउडस्पीकर पर तमिल गाने बजाए जाते हैं, जो जिंदगी पर, उसके सिद्धांतों पर आधारित होते हैं. लोग एक दूसरे से बात नहीं करते, बस गाने सुनते हैं. जैसे पश्चिम बंगाल में रबिन्द्र संगीत महतवपूर्ण है, इसी तरह तमिलनाडु में फिल्मी गाने अहम हैं. हम गाने सुनते हुए बड़े हुए हैं. मुझे नहीं लगता कि हमें गानों को लेकर शर्मिंदा होने की जरूरत है. मैंने एक ही फिल्म का निर्देशन किया है और मेरी फिल्म में बस तीन गाने थे. मुझे लगता है की यह एक गलती थी. मुझे आठ गाने रखने चाहिए थे. या तो आप गाने इस्तेमाल ही ना करें, और अगर करें, तो ढेर सारे. यह बात मैंने अपने पति से सीखी है. वह इस बात को समझते हैं कि गाने वास्तविक नहीं होते, उनमें कोई तर्क नहीं होता, लेकिन वे सिनेमा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. अगर आप भारत में फिल्म बना रहे हैं तो आप उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि कई लोग आपकी फिल्म सिर्फ इसलिए देखने नहीं आएंगे की उसमें गाने नहीं हैं. तो उन्होंने सोचा कि अगर मुझे ऐसा करना ही है तो मैं झिझक के साथ क्यों करूं, क्यों न मैं इसे पूरे दिल से करूं, इसे एक चुनौती समझ कर करूं. हमें तो लगता है की गानों में क्या बड़ी बात है, बस लोग नाच रहे हैं और कुछ शॉट ले लिए. पर ऐसा नहीं है. उन्हें तैयार करने में पूरा एक दिन लग जाता है. आपको पूरी मेहनत करनी पड़ती है.
क्या आपको यहां आकर ऐसा लगता है की बॉलीवुड किसी लिहाज से यूरोपीय सिनेमा से या आपने ईरानी फिल्मों की बात की, उनसे कमतर है?
बॉलीवुड और अमेरिकी फिल्मों में यह फर्क है कि अमेरिकी फिल्में पूरी दुनिया में देखी जाती हैं और भारतीय फिल्में पूरे भारत में. वे फ्रांस या ब्रिटेन की फिल्मों की तरह रीजनल भी नहीं हैं. रीजनल फिल्में बहुत व्यावहारिक और खूबसूरत होती हैं. कहानी जैसी फिल्म, जो कलकत्ता पर आधारित है, उसे आप बहुत खूबसूरती से बना सकते हैं. लेकिन दक्षिण भारत के लोग सोचेंगे कि यह तो कलकत्ता पर है, हम इसे क्यों देखें. कुछ लोग उसे देखना पसंद ही नहीं करेंगे. इसलिए एक समझदार बॉलीवुड फिल्म निर्माता एक सरल सी फिल्म बनाएगा. जैसे आरनॉल्ड श्वार्त्सनेगर के अभिनय को दुनिया भर में पसंद किया जाता है. उसी तरह सलमान खान को भी लोग हर जगह समझते हैं. शाहरुख खान का स्टाइल भले ही किसी कार्टून जैसा हो, लेकिन उसे पूरे देश में स्वीकारा जाता है. इसलिए निर्माताओं के लिए यह एक दिक्कत है कि वे ऊपरी सतह पर ही रह सकते हैं. अगर वे संवेदशील फिल्में बनाने लगेंगे तो वे बहुत से दर्शकों को खो देंगे.
पर क्या यह बात अजीब नहीं है कि जो फिल्में इन फेस्टिवल तक पहुंचती हैं वे सामान्य बॉलीवुड फिल्में न होकर रीजनल फिल्में हैं जो संवेदनशील विषयों को दिखा रही हैं?
जी हां, ऐसा तो है. एक आम बॉलीवुड फिल्म इस तरह के फेस्टिवल में अपनी जगह कभी नहीं बना पाएगी. अक्सर ये फिल्में विश्वसनीय नहीं होतीं. वे अमेरिका के टीवी सीरियल जैसी हैं. मैं दक्षिण फिल्मों का प्रचार करने की बहुत कोशिश करती हूं. अंतरराष्ट्रीय बाजार में जगह बनाना बहुत ही मुश्किल है. यह केवल भारतीय फिल्मों का फेस्टिवल है तो यहां कई फिल्में हैं, लेकिन अगर आप बर्लिन को देखेंगे, वहां सैंकड़ों फिल्मों में केवल दस फिल्में भारतीय होती हैं, जिसमें से एक आध ही दिखाई जाती है. वहां जिंदगी की असलियत को दिखाने की कोशिश कर रही कई फिल्में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही होती हैं. भारतीय फिल्में भले ही ऐसी न हों, लेकिन उनका भविष्य है.
इंटरव्यूः ईशा भाटिया, श्टुटगार्ट
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन