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निर्भया फंड से कितनी सुरक्षा?

१ मार्च २०१३

1665 अरब रुपये वाले बजट में महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक हजार करोड़ रुपये. अगर भारत की कुल महिला आबादी में इसे बांटा जाए, तो एक औरत पर सोलह रुपये साठ पैसे.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

आधुनिक कैलकुलेटरों ने भी यह आंकड़ा बताने से इनकार कर दिया कि बजट में प्रति महिला सुरक्षा की कितनी भागीदारी हुई. चलिए, कम से कम भारत ने पहली बार महिलाओं को तवज्जो तो दिया. आजादी के लगभग सात दशक बाद पहली बार महिलाओं पर बजट में अलग से ध्यान दिया गया है. जाहिर है कि दिल्ली बलात्कार कांड ने इसके लिए उत्प्रेरक का काम किया है और इसी वजह से महिला सुरक्षा मद को निर्भया नाम दिया गया है, भारतीय मीडिया ने बलात्कार की पीड़ित लड़की की पहचान छिपाने के लिए उसे निर्भया नाम दिया था.
महिलाओं में गुस्सा और उनके अधिकारों को लेकर अचानक सड़क पर उतरने वाले आम लोगों ने सरकार को परेशान तो जरूर किया है लेकिन चुनाव आते आते वह इस खाई को पाट लेना चाहता है. उनकी सुरक्षा के नाम पर एक फंड बना देना उन्हें खुश करने का आसान तरीका है. लेकिन यह नहीं बताया गया है कि इस फंड का काम क्या होगा और इसे खर्च करने के लिए कौन से तरीके अपनाए जाएंगे. कम से कम बजट में तो यह नहीं बताया गया.
दर्जनों घोटालों में फंसी भारत सरकार के पास यह बड़ी चुनौती होगी कि वह इस रकम को, जो महिलाओं के नाम पर तैयार की जा रही है और जिसमें खालिस तौर पर आम करदाताओं का पैसा ही होगा, घोटाले की आंच से दूर रखे. इसके लिए एक पारदर्शी तरीका अपनाना होगा और साबित करना होगा कि पैसे सही जगह पर खर्च किए जा रहे हैं. कहीं ऐसा न हो जाए कि अगले बजट तक भारतीय मीडिया निर्भया फंड में घोटाले की खबरें करने लगे. चुनाव से पहले सरकार ऐसा करना चाहेगी या नहीं चाहेगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यह फैसला राजनीतिक है या वाकई औरतों की सुध लेने की कोशिश की जा रही है. वाकई समाज को बदलने की कोशिश की जा रही है.
ऐसा नहीं कि सरकार के इस फैसले को सिर्फ राजनीति के नजर से देखा जाना चाहिए. बल्कि सच तो यह है कि भारत में वाकई औरतों की हालत बहुत खराब है. बड़े पद तो छोड़िए, उन्हें आम जीवन में भी बराबरी का हक नहीं मिला है. सामाजिक ढांचे में उन्हें अलग नजर से देखा जाता है, उनकी जरूरत घर का चौका चूल्हा संभालने और बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजने वाले के रूप में महसूस की जाती है. जरूरत समाज में बदलाव की है. उनकी सोच को बदलने की है. जब तक सोच में बराबरी नहीं होगी, तब तक भारत में औरतों के हक मारे जाते रहेंगे और संसद में एक तिहाई हिस्सेदारी का अधिकार भी इसी तरह दशकों तक लटकी रहेगी.
निर्भया फंड की ही तरह सरकार ने महिलाओं का बैंक खोलने की भी बात की है, जिसका लाइसेंस चुनाव से ऐन पहले यानी अक्तूबर में मिल सकता है. इसके लिए भी बुनियादी रकम एक हजार करोड़ रुपये ही रखी गई है. इस जमाने में एक हजार करोड़ की रकम वाला बैंक कितना कामयाब होगा, बताने की जरूरत नहीं. खुद वित्त मंत्री चिदंबरम का कहना है कि बैंकिंग में महिलाओं की हिस्सेदारी बड़ी है.
भारत के दो बड़े बैंकों की प्रमुख औरतें हैं और तेजी से बदलते बैंकिंग सेक्टर में अच्छे बिजनेस के लिए महिला कर्मचारियों को रखना मजबूरी और जरूरी भी है. तो ऐसे में अगर इस फैसले को भी राजनीतिक नजरिए से देखने की कोशिश की जाए, तो बहुत गलत नहीं होगा. फेसबुक और ट्विटर जैसे सामाजिक वेबसाइटों पर आम लोगों की पहली प्रतिक्रिया भी कुछ ऐसी ही है.
सरकार को समझना होगा कि अब वे दिन बीत गए, जब इस तरह के लॉलीपॉपों से लोगों को रिझाया जा सकता था. पढ़ी लिखी और समझदार होती जनता अब जवाबदेही चाहती है. उसे बताना होगा कि खुद जनता के पैसे से वह जो लुभावने वायदे कर रही है, उसे पूरा कैसे करेगी और इसे घोटालों से कैसे बचाएगी. वर्ना जनता बहुत ज्यादा बर्दाश्त नहीं करती औऱ चुनावों के वक्त तो बिलकुल भी नहीं.

One Billion Rising Aktion gegen Gewalt gegen Frauen
तस्वीर: Reuters

ब्लॉगः अनवर जे अशरफ

(यह लेखक के निजी विचार हैं. डॉयचे वेले इनकी जिम्मेदारी नहीं लेता.)

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