नेआन्डरथाल मनुष्य के विलोप का रहस्य
५ अगस्त २००९हड्डियों के अवशेष जिस गुफा में मिले थे, वह जर्मनी के ड्युसलडोर्फ़ शहर से केवल 12 किलोमीटर दूर नेआन्डरथाल नाम की घाटी में पड़ती है. इसीलिए उस अज्ञात मनुष्य को नेआन्डरथालर (नेआन्डरथाल मनुष्य) नाम दिया गया. चार्ल्स डार्विन की पुस्तक "प्रजाति की उत्पत्ति" को प्रकाशित होने में उस समय तीन साल की देर थी. यह खोज डार्विन के विकासवाद के पक्ष में एक और सशक्त प्रमाण बनी.
नेआन्डरथाल मनुष्य के प्रथम पूर्वज यूरोप में कोई साढ़े तीन लाख वर्ष पूर्व रहा करते थे. मनुष्य जाति की एक अलग प्रजाति के रूप में उनका रूपरंग कोई एक लाख 30 हज़ार साल पहले उभरने लगा था. उनकी अस्थियों के 300 से अधिक अवशेष और औज़ार इस्राएल, उज़बेकिस्तान, यूक्रेन, क्रोएशिया, पोलैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन और यहां तक कि ब्रिटेन के वेल्स प्रदेश में भी पाये गये हैं. अनुमान है कि अपने उत्कर्षकाल में यूरोप में कोई एक लाख नेआन्डरथाल मनुष्य रहा करते थे.
पुरुष औसतन पांच फुट पांच इंच लंबे होते थे. वज़न औसतन 70 किलो. महिलाओं का कद पुरुषों की अपेक्षा क़रीब चार इंच छोटा होता था. नेआन्डरथाल मनुष्य गुफाओं में रहते थे, शिकार करते थे और आग जलाना भी जानते थे. लेकिन, अजीब बात यह है कि अब से कोई 30 हज़ार साल पहले मनुष्य की यह अलग प्रजाति धरती पर से विलुप्त हो गयी. उसके बाद से उसके कहीं कोई निशान नहीं मिलते. वैज्ञानिक लंबे समय से सिर खुजलाते रहे थे कि शारीररचना की दृष्टि से एक इतनी विकसित मनुष्य प्रजाति लुप्त क्यों हो गयी?
नेआन्डरथाल मनुष्य आज के हम होमो सापियन मनुष्यों के सीधे पूर्ज नहीं थे. उनकी एक अलग प्रजाति थी. दोनो प्रजातियों का संभवतः कभी मेल ही नहीं हुआ था.
अटकलों का अंत
उन के विलुप्त होजाने के बारे में तरह तरह की अटकलों का अंत किया है जर्मनी में लाइपज़िग स्थित विकासवादी नृवंशविज्ञान के माक्स प्लांक संस्थान ने. इस संस्थान के अद्रियान ब्रिग्स और उनकी टीम के साथी वैज्ञानिकों ने पहली बार नेआन्डरथाल मनुष्य के छह कंकालों की आनुंवंशिक सामग्री से डीएनए प्राप्त किये. ये नेआन्डरथाल मनुष्य 40 से 60 हज़ार साल पहले जर्मनी की नेआन्डरथाल घाटी, स्पेन, क्रोएशिया और कॉकेशिया में रहते थे. वैज्ञानिक टीम के एक सदस्य स्वान्ते पैऐबो बताते हैं:
"हमारे पास नेआन्डरथाल मनुष्य की हड्डियों के कोई 15 लाख डीएनए फ्रैग्मेंट हैं. उन्हें हमने एक विश्लेषण मशीन में डाला. मशीन ही हर फ्रैग्मेंट के डीएनए क्रम को पढ़ती है."
इस तरह नेआन्डरथाल मनुष्य के जीनोम को पढ़ा और क्रमबद्ध किया गया और उसकी आज के मनुष्य के जीनोम के साथ तुलना की गयीः
"नेआन्डरथालर मनुष्य हमें बताता है कि वह क्या है, जो हमें अपने ढंग की एकलौती प्रजाति बनाता है. बात दरअसल नेआन्डरथालर को समझने की उतनी नहीं है, जितनी ख़ुद को समझने की है."
बहुत कम आबादी आत्मघाती बनी
नेआन्डरथालर मनुष्य के डीएनए के माध्यम से खुद को समझने की इस परियोजना को पूरा होने में तीन वर्ष लग गये. परिणाम यह सामने आया है कि अंतिम दिनों में यूरोप में नेआन्डरथाल मनुष्य की कुल जनसंख्या केवल सात से दस हज़ार के बीच रह गयी थी. यह संख्या इतनी कम थी कि कोई महामारी या भोजन जुटाने की समस्या उनका आसानी से सफ़ाया कर देती. इससे पहले माना जाता था कि अपने अस्तित्व के अंतिम चरण में कोई 50 हज़ार नेआन्डरथाल मनुष्य यूरोप में रह रहे थे.
लाइपज़िग के वैज्ञानिकों की आनुवंशिक तुलना से यह भी साफ़ हो गया है कि नेआन्डरथाल मनुष्य आज के यूरोपवासियों का पूर्वज नहीं था. वह मनुष्य जाति की एक ऐसी शाखा था, जो विकासवाद के नैचुरल सेलेक्शन, यानी प्राकृतिक छंटनी वाले नियम का शिकार हो गयी.
डीएनए ने रहस्य खोला
इन वैज्ञानिकों ने केवल उन डीएनए को अपने अध्ययन का विषय बनाया, जो मानवीय कोषिका का पावर हाउस कहलाने वाले माइटोकोंड्रिया में रहते हैं. वे केवल मां की ओर से हर पीढ़ी को मिलते हैं. उनके सभी 16.500 अक्षरों को पढ़ा गया. इस तरह इस बात की भी पुष्टि हुई कि नेआन्डरथाल मनुष्य चाहे स्पेन में रहता था क्रोएशिया में, उसकी साझी मां एक ही थी. यह भी पता चला कि अपने अंतिम अंत से पहले भी एक बार नेआन्डरथाल मनुष्य विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गया था, लेकिन बच गया, क्योंकि उसकी आबादी फिर से बढ़ने लगी.
हमारा पूर्वज नहीं हो सकता
समझा जाता है कि आधुनिक मनुष्य और नेआन्डरथाल मनुष्य के बीच संतानोत्पत्ति के लिए शायद कभी मेल नहीं हुआ. दोनो के दो अलग-अलग प्रजातियां होने के कारण उनके बीच मेल से संभवतः कोई संतान पैदा भी नहीं होती. यदि होती भी, तो दोगला होने के कारण उसमें प्रजनन की क्षमता नहीं होती.
पृथ्वी पर का अंतिम बड़ा शीतयुग भी कोई 30 हज़ार साल पहले तक चला था. बहुत संभव है कि नेआन्डरथाल मनुष्य को उस समय की यूरोपीय ठंड ने ही अंतिम नींद सुला दी. प्रकृति में उसी प्रजाति का वंश आगे चलता है, जो अपने आस-पास की परिस्थितियों को झेलने के सबसे उपयुक्त होती है. इसी को डार्विन ने प्राकृतिक छंटनी का नाम दिया.
रिपोर्ट- राम यादव
संपादन- महेश झा