पाक अमेरिका, मजबूरी के दोस्तों की नई मुश्किल
९ मई २०११राष्ट्रपति ओबामा के लिए बिन लादेन का सफाया जितनी बड़ी कामयाबी रही, पाकिस्तान में उसका मिलना उनके लिए उतना ही बड़ा सिरदर्द बनता जा रहा है.
शायद यह अंदरूनी दबाव ही है कि खुद राष्ट्रपति ओबामा ने भी पाकिस्तान से यह जानना चाहा है कि आखिर इतने सालों से बिन लादेन उनकी चारदीवारी में कैसे रह रहा था.
जवाब चाहिए
एबटाबाद एक अत्यंत सुरक्षित शहर है, जहां पाकिस्तान की मिलिट्री के बड़े संस्थान हैं और यहां तक कि पाकिस्तानी लोगों को भी इस शहर की सीमा में जाने से पहले दर्जनों चेकिंग का सामना करना पड़ता है. शहर इतना संवेदनशील है कि ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद वहां पहुंचे अंतरराष्ट्रीय मीडिया को भी वहां से हटाया जा रहा है, जैसा कि आम तौर पर पाकिस्तान के दूसरे हिस्सों में नहीं देखा जाता. ऐसी जगह पर बिन लादेन का छह साल से रहना अमेरिका को परेशान कर रहा है, जिस पर वह जवाब मांग रहा है.
करीब दस साल पहले आंतकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान ने अपने पुराने साथी तालिबान को छोड़ कर अमेरिका का साथ देने का फैसला किया था. यह फैसला भावनाओं में बह कर नहीं, बल्कि खास रणनीति के तहत लिया गया. एक तरफ ताकतवर साथी मिल रहा था और दूसरी तरफ उस साथी से अरबों डॉलर की सहायता. लेकिन पाकिस्तान के अंदर तालिबान और धार्मिक गुट इस तहत गुथे हुए हैं कि सरकार को कभी भी पूरी जनता का समर्थन नहीं मिल पाया. अमेरिका ने कभी भी पाकिस्तान पर पूरा भरोसा नहीं किया. भारत से जब परमाणु समझौता हुआ, तो अमेरिका ने साफ शब्दों में कह दिया कि उसका इतिहास दागदार है और उसके साथ समझौता नहीं किया जा सकता. जाहिर है, उनका इशारा पाकिस्तान के सबसे बड़े परमाणु वैज्ञानिक अब्दुल कदीर खान की तरफ था, जिन पर उत्तर कोरिया और ईरान जैसे देशों को परमाणु हथियार की तकनीक देने के आरोप लगे.
दोनों की मजबूरी
मजबूरी यह है कि पाकिस्तान के पड़ोसी अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के एक लाख से ज्यादा जवान तैनात हैं और अमेरिका एक जगह दो दुश्मनों का सामना नहीं कर सकता. पाकिस्तान पश्चिमी सेनाओं की मदद करता है, उनके लिए सैनिक अड्डे उपलब्ध कराता है और खुफिया जानकारियां भी देता है. अगर अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ चला जाए, तो नुकसान उसका भी होगा. लेकिन इस मुद्दे पर वह इतना दबाव बना देना चाहता है कि पाकिस्तान, अपने फायदे के लिए ही सही, अमेरिका के इशारों पर चलने को राजी हो जाए.
समीक्षाः अनवर जमाल अशरफ
संपादनः ए कुमार