Pakistan Krise
२३ जनवरी २०१२पाकिस्तान उबल रहा है. कई हफ्तों से देश की ताकतवर सेना और निर्वाचित सरकार के बीच रस्साकशी चल रही है. पिछले सालों के सबसे गंभीर राजनीतिक संकट की वजहें कई हैं. लेकिन उसकी शुरुआत पिछले साल अमेरिकी सेना की एक विशेष कार्रवाई से हुई जिसमें अल कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन मारा गया. इस घटना के बाद सेना की इस बात के लिए भारी आलोचना हुई कि वह अमेरिका के खिलाफ पाकिस्तान की संप्रभुता की रक्षा करने में विफल रहा. इसके अलावा सर्वशक्तिमान खुफिया एजेंसी आईएसआई पर खुलेआम आरोप लगा कि उसने ओसामा बिन लादेन को कैंटोनमेंट शहर एबटाबाद में छुपाया. अपने को सरकार से भी ताकतवर समझने वालों की इसके लिए बड़ी आलोचना हुई.
मेमोगेट
उस समय सेना और सरकार के बीच तनाव इतना बढ़ गया कि कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने एक संदेहास्पद बिचौलिए और वाशिंगटन में पाकिस्तानी राजदूत के जरिए मेमो भेजकर सैनिक विद्रोह को रोकने के लिए अमेरिका से मदद मांगी. तब से इस्लामाबाद में सरकार पर मेमोगेट कांड की काली छाया है. राजदूत को इस्तीफा देना पड़ा है. सुप्रीम कोर्ट इस बात की जांच कर रहा है कि क्या मदद की अपील राष्ट्रद्रोह है. चूंकि सेना पहले भी विद्रोह करती रही है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि बहुत से लोगों को आशंका है कि जल्द ही पाकिस्तान की सड़कों पर टैंक दौंड़ेंगे. अफवाहें थमने का नाम नहीं ले रहीं.
पिछली बार सेना ने 1999 में सत्ता हथियाई थी. तब जनरल परवेज मुशर्रफ सत्ता में आए थे. वे 2008 तक सत्ता में रहे और अंत में नागरिक समाज, खासकर देश के वकीलों के एक साहसिक आंदोलन के जरिए लोकतांत्रिक चुनाव करवाने पर मजबूर हुए. उसके बाद एक असैनिक सरकार सत्ता में आई. इस लोकतांत्रिक सरकार ने बार बार अपनी अक्षमता का परिचय दिया है. हर जगह भ्रष्टाचार का राज है. जनता की इच्छा का निर्धारण राजनीतिक पार्टियां नहीं बल्कि ताकतवर परिवार करते हैं. 2010 और 2011 में दो दो बार सरकार भूकंप पीड़ितों की मदद करने में नाकाम रही है.
मजबूत नागरिक समाज
इसका मतलब यह नहीं है कि सैनिक विद्रोह की स्थिति में पाकिस्तानी जनता सेना का बिनाशर्त समर्थन करेगी. मौजूदा हालात सेना के लिए बहुत खराब हैं. 1947 में स्थापना के बाद से पाकिस्तान पर ज्यादातर समय सेना का शासन रहा है. मुशर्रफ का शासनकाल पाकिस्तानियों को अभी भी याद है. इसके अलावा 1999 के बाद से वहां बहुत कुछ बदल चुका है. नागरिक समाज बेशक और मजबूत हुआ है. सुप्रीम कोर्ट सत्ताधारियों को कानून का डंडा दिखा रहा है. वकीलों की मदद से अदालत सरकार के तीसरे पाए के रूप में अपनी जगह मजबूत करना चाहता है. 2002 में उदारीकरण के बाद से पाकिस्तान की मीडिया अधिक स्वतंत्र, ताकतवर और आक्रामक हो गई है.
इसके अलावा देश की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल है. देश दिवालिया हो गया है और अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर है. कौन सेना खाली खजाने वाले देश पर शासन करना चाहती है? सैनिक तख्ता पलट होने पर कोई अमेरिकी राष्ट्रपति संसद से सैनिक और वित्तीय मदद पास नहीं करवा पाएगा. इस्लामाबाद सैद्धांतिक रूप से चीन की बाहों में सहारा ले सकता है. लेकिन क्या चीन दिवालिया देश की मदद को तैयार होगा? उसकी कीमत क्या होगी? यह मुसीबत से बाहर निकलने का रास्ता नहीं है, यह बात पाकिस्तान की सेना को पता है.
इमरान बनाम जरदारी
इसलिए इस बात के संकेत हैं कि इस समय विद्रोह की संभावना नहीं है. इसके बदले सेना के अधिकारी दूसरे साधनों पर भरोसा कर रहे हैं, मिसाल के तौर पर सितंबर या अक्टूबर में नए चुनाव कराने और जरदारी गिरोह को अपनी पसंद के राजनीतिज्ञ द्वारा बदलने की. महीनों से सेना पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान और उनकी जस्टिस पार्टी को तैयार कर रही है. इमरान देश भर के दौरे कर रहे हैं और कंजरवेटिव इस्लामी राजनीति की दुहाई दे रहे हैं, जिसे बढ़ते मध्यवर्ग में समर्थन मिल रहा है. मिस्टर टेन परसेंट के नाम से जाने जाने वाले 'भ्रष्ट' शासक जरदारी के खिलाफ उनका अभियान इस्लामाबाद में लोकप्रिय हो रहा है. पाकिस्तान की शक्तिशाली सेना के साथ अपने संबंधों को इमरान खान विवेक पर आधारित बताते हैं. उनका कहना है कि सैनिक सरकारें अतीत की बात हैं. मुमकिन है कि कम से कम फिलहाल उनकी बात सच साबित हो. शर्त यह है कि मतदाता साथ दे.
लेख: ग्रैहम लूकस/मझा
संपादन: एन रंजन