पेनल्टी किक के पीछे छुपा गणित
२८ जून २०१२लेकिन नतीजा खेल से ज्यादा भाग्य से तय हुआ, कैसे.
120 मिनट तक मैदान में जूझने के बाद फैसला हुआ पेनल्टी शूटआउट से. स्पेन के खिलाड़ी फाब्रेगास ने चौथी पेनल्टी को गोल में बदल दिया और टीम फाइनल में पहुंच गई. अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाने वाली टीम पुर्तगाल ने स्पेन को लोहे के चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया. लेकिन पेनल्टी में वह हार गई. ऐसा नहीं होता अगर पुर्तगाल ने गणित का द्विपदीय सिद्धांत लागू किया होता.
ये अपेक्षाकृत नया प्रयोग है जिसका इस्तेमाल फुटबॉल में हार जीत की वजह समझने के लिए किया जा रहा है. आखिर क्या वजह है कि पांच में कुछ ही खिलाड़ी गोल कर पाते हैं. जानकार मानते हैं कि पेनल्टी के गोल में बदलने का औसत 75 प्रतिशत है लेकिन जर्मनी के मामले में ये 90 प्रतिशत से ऊपर है. आखिर क्यों?वजह द्विपदीय सिद्धांत के जरिए समझने की कोशिश की जा रही है. मनोवैज्ञानिक सहायक माटिन तोलान का मानना है कि हर खिलाड़ी के प्रदर्शन का संचित असर टीम का सामूहिक प्रदर्शन को बेहतर कर सकता है. पेनल्टी शूटआउट में हर पांच खिलाड़ियों को गोल मारने के लिए चुना जाता है. इसमें से किसी न किसी का गोल चूकता ही है. ऐसे में खिलाड़ियों का व्यक्तिगत प्रदर्शन जितना बेहतर होगा टीम की जीत की संभवाना भी उतनी ही ज्यादा होगी. हालांकि अभ्यास का कोई विकल्प नहीं. चेक टीम के पूर्व खिलाड़ी एंटोनियो पनेका कहते हैं, ''हर सेशन के बाद मैं अपने गोलकीपर के साथ मिलकर प्रैक्टिस किया करता था. मैंने अनुमान लगाया कि अगर मैं गेंद को तकनीक का इस्तेमाल करते हुए किक मारने में देरी कर दूं तो गोलकीपर जो कि आमतौर पर किनारे की तरफ लपकता है हवा में पीछे की तरफ नहीं उछल पाएगा. और मेरी सोच सही साबित हुई.'' पनेका वही खिलाड़ी हैं जिन्होंने जर्मनी के खिलाफ यूरो 1976 में विजयी पेनल्टी गोल दागा था.
वैसे देखा जाए तो पेनल्टी में जर्मनी का गोल दागने का रिकॉर्ड सबसे बेहतर है. फुटबॉल इतिहास में जर्मनी महज दो बार पेनल्टी शूटआउट को गोल में नहीं बदल सका. जर्मनी की सफलता की दर है 93 फीसदी. जर्मनी से आखिरी बार चूक 1983 में हुई. आज से तीस साल पहले हुए विश्वकप के सेमीफाइनल में जर्मनी पेनल्टी शूटआउट को गोल में बदलने में चूक गया था. हालांकि मैच जर्मनी ने ही जीता था लेकिन ये जर्मनी की आखिरी गलती थी. अपने दौर के दिग्गज जर्मन गोलकीपर हाराल्ड 'टोनी' शूमाखर कहते हैं, ''मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिए ज्यादा वक्त नहीं हो था. मैं पेनल्टी लेने वाले हर खिलाड़ी के बारे में जानकारी लिखकर रखता था. मसलन वो बाएं पैर से मारता है या दाएं पैर से. तेज गोल मारता है या फिर हल्के से शॉट लगता है. कुछ खिलाड़ी ऐसे होते हैं जो किसी खास दिशा में गोल मारते हैं. ऐसे खिलाड़ियों को मैं बेवकूफ बना दिया करता था. मैं जानबूझकर अपने शरीर को दूसरी तरफ झुका लेता था. जब खिलाड़ी उस दिशा में गोल मारता तो मैं उसे पकड़ लेता था.'' गोलकीपिंग के लिहाज से जर्मनी की टीम हमेशा बहुत मजबूत रही है. यहां ओलिवर कान, जेप मायर से लेकर मानुअल नॉयर जैसे होनहार गोलकीपर दिखते हैं. शूमाखर के मुताबिक तकनीकी पक्ष तो पेनल्टी लेने वाले की मदद करता है जबकि मनोवैज्ञानिक पहलू गोलकीपर की मदद करते हैं.
हालांकि 110 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से आती गेंद को रोक पाना गोलकीपर के लिए वाकई बहुत मुश्किल होता है. 11 मीटर की दूरी से किए गए पेनल्टी शूटआउट में गेंद को गोल के अंदर तक पहुंचने में एक सेकंड का आधा हिस्सा लगता है. गोलकीपर के पास फैसला लेने के लिए इसका भी आधा वक्त होता है. यानि एक सेकंड के चौथे हिस्से में गोलकीपर को गेंद की दिशा पर तुक्का लगाकर प्रतिक्रिया देनी होती है. गोलकीपर की तुलना में गोल का आकार प्रकार चार गुना बड़ा होता है. ऐसे में एक गोलकीपर के लिए असंभव है कि वह 18 वर्गमीटर के गोल पोस्ट पर हमले को रोक सके.यानी पेनल्टी शूटआउट पूरी तरह किस्मत का मामला है. इसमें गणित का सिद्धांत भले ही सफलता तय करे लेकिन गोल करना या उसे बचाना भाग्य का ही खेल है.
रिपोर्ट: वीडी/डायन फॉंग
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी