पैरालंपिक में टेकनो डोपिंग
१ सितम्बर २०१२कई सौ रिपोर्टें लिखी जा चुकी हैं, कई सौ फोटो भी लिए जा चुके हैं. लेकिन एक बार फिर कई पत्रकार ऑस्कर पिस्टोरियस को रिकॉर्ड करने पहुंचे हैं.
दक्षिण अफ्रीका के धावक पिस्टोरियस घुटनों के नीचे नकली पैर लगा कर दौड़ते हैं. और इस कारण आज वह दुनिया भर में खेल के आदर्श बन चुके हैं. टेकनो डोपिंग या तकनीक के इस्तेमाल पर पिस्टोरियस शांति से मीडिया के सवालों का जवाब देते हैं, "खिलाड़ी की अक्षमता या उन्हें मिलने वाली तकनीक पर फोकस नहीं होना चाहिए बल्कि उनके गुणों और उनकी इच्छा शक्ति देखनी चाहिए." पैरालंपिक खेल किसी जमाने में युद्ध से लौटे सैनिकों के पुनर्निवास के लिए शुरु किए गए थे और आज ये खेल 166 देशों के 4,200 खिलाड़ियों के लिए एकदम प्रोफेशनल स्टेज बन गए हैं.
पैरालंपिक खेलों में रिकॉर्डों की संख्या भी रिकॉर्ड तोड़ चुकी है. स्पॉन्सर करने वाली कंपनियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है. और साथ ही आ रही है नित नई तकनीक. चाहे वह व्हील चेयर हो या नकली पैर. वैज्ञानिक शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए नए नए उपकरण बना रहे हैं. इन्हीं में से कुछ उपकरण विकलांग खेलों का कैरेक्टर बदल रहे हैं.
कुछ लोगों का आरोप है कि तकनीक के कारण खिलाड़ियों को अनुचित फायदा मिल रहा है. वह इसे टेकनो डोपिंग कहते हैं. ऑस्कर पिस्टोरियस को भी इसकी आंच कई बार झेलनी पड़ी है.
दिन रात काम
11 महीने के पिस्टोरियस की टांगें घुटने से नीचे काटनी पड़ीं, लेकिन वह दौड़ना चाहते थे. और आज कार्बन फाइबर से बनी टांगों से वह दुनिया जीत रहे हैं, रिकॉर्ड बना रहे हैं. कुछ ही हफ्ते पहले पिस्टोरियस ओलंपिक में 400 मीटर के सेमीफाइनल तक पहुंचे थे. उनके आलोचकों का कहना है कि इन कार्बन प्रोस्थेज से उन्हें अनुचित लाभ मिलता है क्योंकि यह सामान्य मानवीय टांगों से हल्के हैं और इन्हें किसी भी सतह पर दौड़ने के लिए विशेष तौर से बनाया गया है. इन प्रोस्थेज को बनाने वाले रुइडिगर हेर्जोग कहते हैं कि यह आधारहीन दलील है. "यह इस तथ्य को सिरे से खारिज कहती हैं कि ये लोग अभ्यास भी करते हैं. इन खिलाड़ियों को मिलने वाला तकनीकी सहयोग मैदान को समतल बनाने जैसा है."
हेर्जोग ओटो बॉक नाम की कंपनी के लिए काम करते हैं जो कृत्रिम अंग बनाने के लिए मशहूर है. 1988 में शुरू हुई यह कंपनी पैरालंपिक के दौरान मरम्मत के लिए वर्कशॉप लगाती है. इस दौरान 80 तकनीकी एक्सपर्ट खिलाड़ियों की व्हील चेयर, कृत्रिम अंगों, बैट्स, खराब हो चुके नकली घुटने के जॉइन्ट या तो ठीक करते हैं या फिर उन्हें मुफ्त में बदल कर देते हैं. हेर्जोग कहते हैं, "तकनीकी मदद करना समान मौकों के लिए हमारी पहल है. हम इन खिलाड़ियों का जीवन स्तर सुधारने में मदद करना चाहते हैं."
मार्क शूह कहते हैं, "आखिरकार यह मानवीय फैक्टर है क्योंकि हम बहुत मेहनत करते हैं." 23 साल के शूह कॉडल रिग्रेशन सिन्ड्रोम से पीड़ित हैं. इस कारण शरीर में रीढ़ की हड्डी से नीचे का हिस्सा काम नहीं करता. लेकिन अपनी व्हील चेयर पर 400 मीटर की दौड़ में वह सबसे तेज हैं.
विकासशील देशों की स्थिति
शूह ने पहली रेस सामान्य व्हील चेयर पर जीती थी. इसके बाद उन्होंने अपने माता पिता से रेसिंग व्हील चेयर की जिद की, उनकी फिर जीत हुई. इस जीत से व्हील चेयर बनाने वाली कंपनियों को भी प्रोत्साहन मिला. स्पॉन्सरशिप से फायदा हुआ क्योंकि एक सीजन का खर्च 35 हजार यूरो तक हो सकता है और अच्छी व्हील चेयर की कीमत साढ़े तीन हजार यूरो. हालांकि कई अन्य विकलांग खिलाड़ियों को इस तरह की सुविधाएं और स्पॉन्सरशिप नहीं मिलती, जैसे कंबोडिया की थिन सेंग होन. उनके कृत्रिम पैरों के लिए उनके दोस्तों ने पैसे दिए. जबकि कंबोडिया में युद्ध और बारुदी सुरंगों के कारण दुनिया के सबसे ज्यादा विकलांग लोग रहते हैं.
फिलहाल भले ही अंतर बड़ा हो लेकिन एक स्तर पर जीवन को थोड़ा आसान बनाने की शुरुआत तो हो ही गई है. लंदन के पैरालंपिक में मरम्मत के लिए बनाई गई वर्कशॉप में कई खिलाड़ियों ने कृत्रिम जोड़ या पैर, व्हील चेयर दे कर नया लिया है. पुरानी चीजों में से अधिकतर का सामान्य जीवन में इस्तेमाल हो जाता है जबकि 40 फीसदी चीजों का रेसिंग के लिए फिर से उपयोग हो सकता है.
रिपोर्टः रोनी ब्लाश्के/आभा मोंढे
संपादनः मानसी गोपालकृष्णन