प्रगति और संशय के बीच झूलता काबुल
३ अगस्त २०११2001 में जब अफगानिस्तान में तालिबान का पतन हुआ, तो काबुल में छह लाख लोग रहते थे. आज वहां अनुमानतः 40 से 50 लाख लोग हैं. शहर के एक इलाके में आज के विकास को आसानी से समझा जा सकता है. इस इलाके में नई सत्ता का प्रतीक है और यहां जनता की आवाज बसती है. यह इलाका है राजधानी के पश्चिम में बसा कार्टे सेह.
यहां से हथौड़े और खुदाई की आवाज आती है. पूरा इलाका एक निर्माण केंद्र बना हुआ है. काबुल के लिए यह एक अच्छी खबर है. टैक्सी चलाने वाले मीरवाइज कहते हैं, "जहां काम हो रहा है, वहां निवेश हो रहा है और वहीं उम्मीद है."
परंपरा के साथ समृद्धि
यहां से भागने से पहले कार्ते सेह में कभी सजे हुए और सामान्य बंगलों में काबुल का मध्यम वर्ग रहता था. फिर मिट्टी के घर वहां भी बन गए क्योंकि युद्ध की वजह से लोग गांव छोड़ कर शहर आने लगे थे. और अब यहां दुबई या पाकिस्तानी रईसों के बंगलों की तरह घर बन गए हैं. यहां के पुल-ए-सुर्ख यानी लाल पुल के पास अमीरों और गरीबों की सीमा तय होती है. यहां जातियों का शानदार मेल होता है. बुर्के में रहने वाली महिलाएं यहां अपवाद हैं. सिर्फ मुख्य सड़क ही पक्की है. यहां से गुजरने वाला ट्रक लोगों को धूल के बड़ा गुबार में ढक देता है.
तालिबान की फिरौती
बाजार के हर कारोबारी की अपनी कहानी है. नमाजी टोपी पहने एक ठिगने कद का शख्स कहता है, "मेरा नाम हाजी मुराद अली है. तालिबान ने मुझे 32 बार धमकी दी है." अली की दुकान में बकलावा, बिस्किट और दूसरी मीठी चीजें बिकती थी. वह यहां दस साल से ज्यादा से कारोबार कर रहे हैं. उनका कहना है, "अगर आप नए कपड़े भी पहनो, तो तालिबान पहुंच जाते. कहते थे तुम रईस कमांडर हो, और वे कोड़ों से मारना शुरू कर देते थे." अली कहते हैं कि वे लोगों को टॉर्चर करते हैं और उसमें मजे लेते हैं. हर बार लक्ष्य पैसा वसूलना होता है.
एक दराज से टूटे हुए ताले को निकाल कर मुराद अली उसकी घुंडी इधर उधर घुमाते हुए बताते हैं, "दो हफ्ते पहले मेरे यहां डकैती पड़ी. पुलिस आई. लेकिन मुझे मदद करने की जगह वे मुझसे पैसे मांगने लगे." उनका कहना हालात आजकल बेहतर जरूर हैं लेकिन न्यायपूर्ण नहीं. "अगर आप पुलिस से भिड़ते हैं, तो वे आपको गिरफ्तार कर लेते हैं. इसलिए मैं मुंह बंद रखता हूं नहीं तो मैं जेल पहुंच जाऊंगा, काली कोठरी में."
अमीर होते सांसद
काबुल में रूसी लोग फिर से रहने लगे हैं. मॉस्को से आई सोनिया कार्टे से में अपने अफगान पति सनजर के साथ रहती है. दोनों की मुलाकात पोलैंड में हुई, जहां सनजर वजीफे पर पढ़ाई करने गया था. वे संसद के बहुत पास रहते हैं. सनजर कहते हैं, "हमारे पड़ोसी सांसद हैं. वे गांव से आने के बावजूद बहुत कम वक्त में अमीर हो गए हैं. मैं पूछता हूं कि उनके पास इतना पैसा कहां से आ गया."
काले धन को सफेद किया गया यह पैसा तेल के कारोबार या ड्रग कारोबार या ऐसे ही किसी और कारोबार से आया है. इसी पर आधारित है काबुल में फल फूल रहा निर्माण कार्य का बड़ा हिस्सा, और सिर्फ यहां के लोगों की जुबान में ही नहीं. इन सबने सनजर का नजरिया बदल दिया है, "मुझे गुस्सा आता है. पहले मैं समझता था कि वोट देना जनता का कर्तव्य है, मझे इसका निर्वहन करना चाहिए. लेकिन अब मैं समझता हूं कि हमारा वास्ता माफिया से है, सरकार से नहीं." 1990 के दशक में शुरू हुआ गृह युद्ध और संसद, सनजर के लिए एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. "संसद हत्यारों से भरी है. उन्होंने अपने समय में शहर का यह हिस्सा बर्बाद कर दिया. वे 60,000 लोगों की हत्याओं के लिए जवाबदेह हैं. उन्होंने उन दिनों हम पर मशीनगन चलाए हैं. और अब संसद में बैठ रहे हैं." सनजर को यह समझ में नहीं आता कि पश्चिम के राजनयिक इन सांसदों की नए लोकतंत्र के प्रतीक के रूप में तारीफ क्यों करते हैं. वह तो चाहता है कि इन्हें अदालत के सामने लाया जाए.
शिक्षा के लिए निजी यूनिवर्सिटी
और एक गली आगे एक बोर्ड पर डिग्री वाला हैट पहने मुस्कुराती युवतियों की तस्वीरें लगी हैं. यह निजी यूनिवर्सिटियों का प्रचार है. सरकारी यूनिवर्सिटी में जगहों की कमी पड़ रही है. दर्जनों निजी यूनिवर्सिटियां लोगों की शिक्षा पाने की भूख को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा ही एक इंस्टीट्यूट इब्न सिना एक इस्लामी विद्वान के नाम पर रखा गया है. अली अमीरी इसके संस्थापक हैं. उन्होंने दार्शनिक विट्गेनश्टाइन पर पीएचडी किया है और बताते हैं कि इतनी भीड़ क्यों है. उनका कहना है, "छात्रों का एक बड़ा तबका हजारा जाति के लोगों का है, जिन्हें लंबे वक्त तक दबाया गया. वे लंबे वक्त तक सेना में अधिकारी नहीं बन सकते थे और राजनीति तथा कानून की पढ़ाई की इजाजत भी नहीं थी. इन पाबंदियों को अब खत्म कर दिया गया है. अब वे भरपाई कर रहे हैं."
यहां 300 छात्रों में कई लड़कियां भी हैं. इनकी फीस का एक हिस्सा माफ कर दिया जाता है. यहां कानून की पढ़ाई कर रही एक छात्रा का कहना है, "मैं सांसद नहीं बनना चाहती हूं क्योंकि इससे परेशानी बढ़ती है. मैं इसलिए कानून की पढ़ाई कर रही हूं क्योंकि मैं अत्याचार से पीड़ित महिलाओं की मदद करना चाहती हूं." वैसे इस क्लास में पुरुष छात्रों के बैठने की जगह पिछली लाइन में बनाई गई है. छात्राओं ने सिरों पर रंगीन स्कार्फ पहन रखा है, कुछ ने मेकअप भी किया हुआ है.
महिलाओं को अवसर सिर्फ काबुल में
वहीं एक और छात्रा कह उठती है, "आप जो कुछ देख रहे हैं, वह सिर्फ काबुल में ही है. सिर्फ यहीं एक औरत अपने मर्जी से सिर पर दोपट्टा रख सकती है. गांवों में तो महिलाएं अकेले घर के दरवाजे से बाहर भी नहीं जा सकती हैं और न ही पढ़ाई कर सकती हैं. और अगर जाती हैं, तो बुर्का पहन कर जाना पड़ता है." देहातों में अफगान महिलाएं पुरुषों के लिए सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन होती है, इस छात्रा का कहना है, "कुछ महिलाएं तो 18 बच्चे पैदा करती हैं."
रिपोर्टः मार्टिन गैर्नर/ए जमाल
संपादनः महेश झा