फेसबुक से रमजान में सवाब
२ अगस्त २०१३लखीमपुर के व्यवसायी अब्दुल रहमान को आर्थराइटिस हैं. तरावीह (रमजान में रात की विशेष नमाज) पढ़ने मस्जिद नहीं जा पाते. सऊदी अरब से टीवी पर लाइव चल रही तरावीह पर नीयत कर कुर्सी पर बैठ जाते हैं. टीवी के लिए अलग इनवर्टर है कि बिजली जाए तो भी तरावीह में खलल न पड़े. रहमान अकेले नहीं, घरों में औरतें बच्चे और बुजुर्ग भी उनके साथ तरावीह में शिरकत कर रहे हैं.
मजहबी टेलीविजन चैनलों को देखने वालों की तादाद भी रमजान में बढ़ गई है. हिंदी उर्दू के लगभग सभी चैनलों पर रमजान वाले मजहबी प्रोग्राम देखे जा रहे हैं क्योंकि "टीवी तो चलना ही है तो क्यों न इन मुबारक दिनों में मजहबी प्रोग्राम ही देखे जाएं, शायद खुदा को पसंद आ जाए", कहना है दिल्ली में टीचर तलत गुल का. वह बताती हैं, "दिल्ली में तो रमजान में ही पूरे साल की खरीदारी करने की भी परंपरा है क्योंकि ये महीना बरकतों का है." रमजान की रातों में पुरानी दिल्ली के बाजारों की रौनक देखने लायक होती है.
मुदस्सर अजीज एमएनसी में काम करते हैं, शाइस्ता टीचर हैं, मुस्तफा पत्रकार हैं, आमिर सरकारी अफसर, शाहीन स्कॉलर हैं.. ये सब रमजान के बारे में मजहबी बातें रोज फेसबुक पर पोस्ट करते हैं. लोग लाइक और शेयर करते हैं. इनका कहना है कि इससे इन्हें "सुकून मिलता है. लगता है कि नेक काम किया, सवाब (पुण्य) मिलेगा." तनवीर ने रमजान भर अपने दोस्तों को मजहबी ट्वीट करना शुरू कर दिया. तनवीर का भी मानना है कि इससे उन्हें सवाब मिलेगा.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लिए मशहूर है. इसके मेडिकल कॉलेज के पास धौर्रा गांव अब मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों की करीब 25,000 की पॉश मुस्लिम कॉलोनी में बदल चुका है. इसके लिए कहा जाता है कि पूरे एशिया में इतने पढ़े लिखे मुसलमान एक साथ कहीं और नहीं रहते. लेकिन यहां न कोई सेहरी में जगाता है और न इफ्तार के लिए गोले दगते हैं. मोबाइल फोन के अलार्म और अलर्ट की बीप से यहां इफ्तार और सेहरी होती है.
इसी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सिराज अजमली इन दिनों अपने घर बलिया के सिकंदरपुर गांव में हैं. बताते हैं कि यहां सेहरी के लिए अभी भी एक खास तरह से ढोल बजाकर लोगों को जगाया जाता है. मस्जिदों से माइक पर हर 15 मिनट पर सेहरी का एलान किया जाता है, "पहले सेहरी के लिए दर्जनों सजे धजे रिक्शों पर नातख्वानी होती थी. ये रिक्शे ईद के दिन ईदगाह जाते जहां उन्हें इनाम से नवाजा जाता. लोग नई नई नातें इसीलिए लिखते, ये एक रोजगार भी है." पूर्वी उत्तर प्रदेश में अभी भी ये मजहबी कला बाकी है.
रिपोर्टः सुहेल वहीद, लखनऊ
संपादनः अनवर जे अशरफ