बर्लिन दीवार के आरपार महिलाएं
१६ अक्टूबर २००९किंडर, किर्शे ऐंड कुशे.. कहते हैं किसी ज़माने में पश्चिम जर्मनी की महिलाओं का जीवन इन्हीं तीन के के आस पास घूमता था. किंडर यानी बच्चे, किर्शे यानी चर्च और कुशे यानी रसोई.
पीछे थीं महिलाएं
बच्चे और रसोई से अगर वक्त मिल भी गया तो चर्च में लग जाता था. पश्चिम जर्मनी भले ही पश्चिमी दुनिया के क़रीब माना जाता हो, यहां करियर संवारना या बड़े ओहदों तक पहुंचना महिलाओं के लिए आसान नहीं था.. 1949 का क़ानून उन्हें मर्दों की बराबरी का दर्जा तो ज़रूर देता था लेकिन ऐसी मिसालें भी हैं, जब सिर्फ़ शादी करने की वजह से उन्हें नौकरियों से निकाल दिया जाया करता था. दोबारा उठ खड़े होने को बेताब जर्मनी की संस्कृति में यह एक दीवार थी.... और इससे बड़ी दीवार बर्लिन में उठ खड़ी हुई थी.
जीडीआर में मौक़े ज़्यादा
उस पार महिलाओं की स्थिति थोड़ी बेहतर थी. साम्यवादी पूर्वी जर्मनी यानी जीडीरआर में किसी को उनसे हमदर्दी तो नहीं थी पर उन्हें काम के मौक़े ज़्यादा मिले. परिवार और शादी के क़ानून को बदला गया और शादी शुदा औरतों के लिए भी काम काज के दरवाज़े खोले गए. साम्यवादी विचारधारा का मुख्य सिद्धांत है कि हर वयस्क को काम करना चाहिए. पूर्वी जर्मनी में इसका पालन होता रहा और लगभग 90 फ़ीसदी महिलाएं टीचर से लेकर डॉक्टर और राजनीति से लेकर सेना तक में काम करती रहीं.
पूर्वी जर्मनी को अपनी गिरती आबादी की वजह से भी महिलाओं पर निर्भर रहना पड़ता था और इस वजह से भी कि मर्दों का एक बड़ा हिस्सा दीवार पार कर पश्चिम की और भाग जाना चाहता था. शायद जर्मनी की सबसे बड़ी दुश्मन यह दीवार ही थी.
बड़े स्तरों पर पीछे ही रहीं
काम काज तो एक बात लेकिन जब बात नीति बनाने या सरकार चलाने की आती तो महिलाएं पीछे रह जातीं. दीवार के इस पार भी और उस पार भी. पूर्वी जर्मनी में महिलाओं को ट्रेड यूनियनों और सोशलिस्ट पार्टी में तो अच्छी ख़ासी जगह मिली लेकिन उन्हें बड़े ओहदे तक नहीं पहुंचने दिया गया. पश्चिम की हालत ख़राब रही. राजनीतिक पार्टियों में पांच फ़ीसदी से कम महिलाओं को जगह मिलती रही.
आरक्षण की खुली मांग
समाजशास्त्री हिल्देगार्ड निकल बताती हैं कि बर्लिन की दीवार गिरने से पहले एक नवंबर 1989 को जर्मनी की सैकड़ों महिलाओं ने मिल कर एक पत्र लिखा. इसे पूर्वी जर्मनी के एक अख़बार में खुलेआम प्रकाशित किया गया. जब आज मैं इसके बारे में सोचती हूं तो लगता है कि वह एक हिम्मती क़दम था. हमने महिलाओं के आरक्षण की मांग की और कहा कि महिला आंदोलन स्वतंत्र होना चाहिए.
एकीकरण के बाद अधिकार
जर्मन एकीकरण से पहले पश्चिम जर्मनी में भी महिलाओं की स्थिति थोड़ी सुधरी और उनके अधिकारों के लिए आंदोलन तेज़ हुए. इस हिस्से में बच्चों की परवरिश एक बड़ा संकट था और इस वजह से कई मांओं ने ममता को करियर पर तरजीह दी. काम काज छोड़ कर अपने बच्चों को पाला पोसा. वैसे कई महिला कार्यकर्ता हैं, जो समझती हैं कि बर्लिन की दीवार गिरने से महिलाओं के आंदोलन को झटका लगा. एफ़डीपी की कारोला फ़ोन ब्राउन कहती हैं कि एक दिन से दूसरे दिन महिला आंदोलन की कोई पूछ ही नहीं रह गई. अचानक एकीकरण ही सबसे अहम हो गया. कैसे होगा, कब होगा और कौन सी शर्तें होंगी. मेरा मानना है कि एकीकरण के बाद हर क्षेत्र में सुधार हुए, पर महिला नीति में नहीं क्योंकि सब एकीकरण को सफल बनाने में लगे रहे.
ख़त्म नहीं हुए भेदभाव
दीवार गिरने के बाद भावनाओं का समंदर उमड़ पडा. बरसों से बिछड़े लोग मिले. लेकिन इसी उथल पुथल में कई महिलाओं की नौकरी चली गई. जर्मनी एक ज़रूर हो गया लेकिन महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव ख़त्म नहीं हुए. उन्हें मर्दों की तरह काम करने पर भी तेईस प्रतिशत कम वेतन मिलता. न ही राजनीति और समाज के ऊंचे पदों पर उन्हें जगह मिल पाई है.
लेकिन तसल्ली इस बात की कि उन्हीं के बीच की एक महिला आज दुनिया की सबसे ताक़तवर महिला है. चांसलर अंगेला मैर्केल पूर्वी जर्मनी से ताल्लुक़ रखती हैं और लगातार दूसरी बार देश की कमान संभाल रही हैं. और जर्मनी की महिलाएं एक बार फिर तीन के के फ़ॉर्मूले पर लौट रही हैं.. किंडर, किर्शे ऐंड कुशे नहीं.. किंडर, किर्शे ऐंड करियर.. बच्चे, चर्च और करियर.
रिपोर्टः प्रिया एसेवबॉर्न
संपादनः आभा मोंढे