बाइपोलर डिसऑर्डर यानी करेले पर नीम
८ मार्च २०११सोमवार को अमेरिकी सरकार के शोधकर्ताओं की एक रिपोर्ट में बताया गया कि कम औसत आमदनी वाले देशों में बाइपोलर डिसऑर्डर के खतरे को कम करके आंका जा रहा है. यह बीमारी किशोरावस्था में ही सामने आ सकती है और मरीज को जिंदगीभर इसका सामना करना पड़ सकता है.
आर्काइव ऑफ जनरल साइकियाट्री में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ का एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया गया है, जिससे पता चलता है कि दुनिया की 2.4 फीसदी आबादी इस बीमारी से ग्रस्त है. 61 हजार से अधिक लोगों के बीच सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंचा गया है.
इंस्टिट्यूट की कैथलीन मेरिकांगास ने पत्रिका में लिखा है कि बाइपोलर डिसऑर्डर के चलते कैंसर या एपिलेप्सी और आल्जहाइमर के मुकाबले अधिक लोगों को जिंदगीभर अपंगता से जूझना पड़ता है.
उनकी टीम की ओर से अमेरिका के अलावा भारत, मेक्सिको, ब्राजील, कोलंबिया, बुल्गारिया, रुमानिया, चीन, जापान, लेबनान और न्यूजीलैंड में यह सर्वेक्षण किया गया. सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि सिर्फ आधे मरीजों की चिकत्सा होती है. कम औसत वाले देशों में सिर्फ 25 फीसदी मरीजों का कहना था कि किसी डॉक्टर से उनका पाला पड़ा था.
लगभग आधे लोग किशोरावस्था में इस रोग के शिकार हुए. शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे स्पष्ट हो जाता है कि समय रहते इसका निदान व इलाज बेहद जरूरी है, नहीं तो यह एक स्थाई पुराने रोग में बदल जाता है.
बाइपोलर डिसऑर्डर के साथ अक्सर दूसरे मानसिक रोगों के लक्षण भी देखने को मिलता है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि तीन चौथाई मरीजों में दूसरे रोगों के लक्षण पाए गए. आम तौर पर ये मरीज फोबिया या भयग्रंथि के शिकार होते हैं.
सर्वेक्षण में कहा गया है कि बाइपोलर डिसऑर्डर के साथ जुड़ी मानसिक अपंगता को देखते हुए खासकर कम औसत आमदनी वाले देशों में मनोरोग की चिकित्सा का अभाव गहरी चिंता का विषय है.
रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ
संपादन: एस गौड़