बॉलीवुड को भा गई गांव की कहानियां
३ सितम्बर २०१०घड़ा लेकर पानी भरने जाती गांव की गोरियां ही नहीं, किसानों की आत्महत्या और गांव के लोगों की यौन प्रवृत्तियां भी फिल्मों का मसाला बन रही हैं. पीपली लाइव का नत्था तो एक नजीर भर है. इश्किया की कृष्णा और ओमकारा का लंगड़ा त्यागी सबको लुभा रहे हैं. शहरों की चमक दमक और आधुनिकता की चकाचौंध से भरे बॉलीवुड की आंखों में अब गांव की हरियाली की चमक है.
न बड़े स्टार की जरूरत न आलीशान सेट की और न ही शूटिंग के लिए विदेश जाने का झमेला, छोटी सी कहानी और फिल्म बनती है किसी गांव में. आम हिंदी फिल्मों के मुकाबले खर्चा भी बस आधा ही. समाज की मुश्किलें हो या दबंगों की राजनीति, सूखे से लड़ते किसान का क्रिकेट खेलने का फैसला हो या नासा के वैज्ञानिक का गांव की फिजा में घुलमिल जाना, हर कहानी हिट है और हर कलाकार सितारा.
अपने नाई दोस्त बिल्लू से मिलने फिल्मस्टार साहिर खान यूं ही गांव में नहीं चला आया. बदलाव ये आया है कि शहरी दर्शकों को भी अब भारत की तीन चौथाई आबादी की कहानी पसंद आ रही हैं. पीपली लाइव की निर्देशक अनुषा रिजवी कहती हैं," ये कहानी ग्लोबल इंडिया और स्थानीय लोगों के बीच की दरार की दास्तान है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है" इश्किया के निर्देशक ने गांव की खरी भाषा का इस्तेमाल अपनी फिल्म में किया और वह कहते हैं," आखिरकार हम भारत के उस हिस्से के बारे में फिल्में बनाने लगे हैं जिसके बारे में बहुत पहले बात होनी चाहिए थी." अभिषेक मानते हैं कि भारत के गांव भले ही स्क्रीन पर उतने सुंदर ना दिखें लेकिन वहां बहुत सी ऐसी कहानियां हैं जो लोगों को सुनाई जानी चाहिए.
ऐसा नहीं कि ये दौर सिर्फ अभी आया है मदर इंडिया और तीसरी कसम जैसी फिल्में गुजरे जमाने में भी खूब पसंद की गई. गांव के साहूकारों की मक्कारी और उनके चंगुल में फंसे सीधे सादे गरीबों की बेबसी ने हिंदी फिल्मों को खूब मसाला दिया है. पर गांव में रहने वालों की रोजमर्रा की दिक्कतों पर फिल्में अब बननी शुरू हुई हैं. साथ ही एक बदलाव ये भी है कि गांव को ठीक उस रुप में दिखाया जा रहा है जैसा वो है यानी उसकी आबोहवा में ग्लैमर का तड़का नहीं लगा.
रिपोर्टः एजेंसियां/ एन रंजन
संपादनः ए कुमार