भारत जर्मन संबंधों के उतार-चढ़ाव
२५ जनवरी २०१०भारत 1947 में आज़ाद हुआ. संघीय जर्मनी 1949 में बना. उस की नींव युद्ध में पराजित देश के उन पश्चिमी हिस्सों पर रखी गयी, जो युद्ध की पश्चिमी विजेता शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के सैनिक क़ब्ज़े में थे. भारत और जर्मनी दोनो उस समय विभाजन की मर्मांतक पीड़ा से कराह रहे थे और अपने लिए एक नया राजनैतिक चेहरा तराश रहे थे.
साझा दुख
विदेशी शक्तियों के हाथों देश के विभाजन की पीड़ा ही वह सहवेदना थी, जो भारतीय जनता और उसके नेताओं के मन में तत्कालीन पश्चिम जर्मनी के प्रति समवेदना जगाती थी. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, भारत की स्वाधीनता से पांच महीने पहले, इसी समवेदना के साथ 11 मार्च 1947 को लिखा: "भारत जर्मनी के भविष्य के प्रति उदासीन रह ही नहीं सकता....जर्मनी तब तक न तो स्वस्थ हो सकता है और न खुश, जब तक किसी न किसी तरह से उसका एकीकरण नहीं हो जाता."
नेहरू ने ऐसा कहा ही नहीं, किया भी. ब्रिटिश भारत भी द्वितीय विश्व युद्ध के समय हिटलर विरोधी गठबंधन का सदस्य था. जर्मनी के पश्चिम में संघीय जर्मन गणराज्य के बनते ही पश्चिमी विजेता शक्तियों के बाद भारत पहला देश था, जिसने उसे औपचारिक मान्यता दी. जर्मनी के साथ युद्ध की स्थिति का अंत किया. कहा, हमें कोई मुआवज़ा, कोई क्षतिपूर्त नहीं चाहिये. 1951 में अपने सैनिक मिशन को एक लिगेशन में और 1952 में दूतावास में बदल दिया. दुख की बात है कि इन तथ्यों को जर्मनी में शायद ही कोई जानता है.तत्कालीन सोवियत संघ के साथ अच्छी दोस्ती होते हुए भी नेहरू ने भी, और बाद में इंदिरा गांधी ने भी, उसके बनाये पूर्वी जर्मनी को तब तक राजनयिक मान्यता नहीं प्रदान की, जब तक अक्टूबर 1973 में दोनो जर्मन देशों के बीच आपसी संबंधों के नियमन की तथाकथित आधारभूत संधि पर केवल हस्ताक्षर करने भर की देर नहीं रह गयी थी.
गुटनिरपेक्षता पर मतभेद
भारत को यह बात अच्छी नहीं लगी कि वह तो दोनो जर्मनी से विदेशी सैनिक हटाये जाने की मांग कर रहा था, जबकि पश्चिम जर्मनी ने उसी समय नाटो सैनिक गुट का सदस्य बन कर और भी सैनिकों के आने को न्यौता दे दिया. भारत तब भी आत्मरक्षा की चिंता और पश्चिमी दुनिया के साथ रहने की जर्मनी की उत्कंठा को समझ रहा था. लेकिन जर्मनी समझ नहीं पा रहा था कि भारत गुटनिरपेक्षता की वकालत क्यों करता है. सब कुछ काला या सफ़ेद देखने के अमेरिकी सिद्धांत की तरह ही जर्मनी भी नेहरू की गुटनिरपेक्षता को अवसरवादी अवचनबद्धता मानता था.
गोवा पर तल्ख़ी
जर्मनी और उसके साथियों ने इस शब्दावली पर राहत की सांस ली. पर तीन ही महीने बाद, 18 दिसंबर 1961 को जब भारतीय सैनिक भारतीय भूमि पर के पुर्तगाली उपनिवेश गोवा पहुंचने का रास्ता साफ़ करने वहां पहुंचे, तो जर्मनी सहित सभी नाटो देशों ने भारत के सैनिक बलप्रयोग की भर्त्सना की. नाटो के सदस्य पुर्तगाल के तानाशाह सालाज़ार के साथ ही सबने एकजुटता दिखायी. भारत बर्लिन के प्रश्न पर जर्मनी का साथ दे रहा था. लेकिन जर्मनी गोआ के प्रश्न पर भारत का साथ नहीं दे पाया. गोआ की मुक्ति भारत-जर्मन संबंधों के पहले दशक की एक बड़ी तल्ख़ी बनी.
निंदा और भर्त्सना की इससे भी बड़ी बौछार भारत पर तब हुई, जब उसने मई 1974में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया. जर्मन मीडिया ने तो ऐसा हल्ला मचाया, मानो भारत ने अपना परीक्षण बम सीधे जर्मनी पर ही पटक दिया है. सबसे बड़ा तर्क यही हुआ करता था कि भारत जैसा भूखा-नंगा-ग़रीब देश ऐसा मंहगा काम कर कैसे सकता है? वह जर्मनी जैसे उन्नत देशों की विकास साहायता का दुरुपयोग कर रहा है. मानो परमाणु बम बनाना वैज्ञानिक-तकनीकी कौशल नहीं, केवल अधिकार का प्रश्न है और यह अधिकार केवल अमीर देशों की बपौती है.
जर्मनी के एकीकरण के बाद भारत और जर्मनी के बीच घनिष्ठता बढ़ी है. पर भारत की परमाणु नीति को लेकर दोनो के बीच दूरी अब भी बनी हुई है. जर्मनी भारत की परमाणु नीति को संशय की दृष्टि से देखता है. विदेशमंत्री गीडो वेस्टरवेले पिछले वर्ष जब संसद में विपक्ष की सीट पर बैठा करते थे, तब भारत को परमाणु सामग्री देने का रास्ता साफ़ करने वाले समझौते के साफ़ विरुद्ध थे. जर्मनी भारत में अपने ही एक पूर्व राजदूत डॉ. हांस-गेओर्ग वीक की इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता कि " परमाणु अस्त्र अप्रसार और व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि जैसे मूलभूत प्रश्नों पर भारत का रुख किसी विस्तारवादी शक्तिप्रदर्शन नीति का परिणाम नहीं है, बल्कि चीन सहित पांच परमाणु शक्तियों के परमाणु-एकाधिकार का रक्षात्मक " उत्तर है.
रिपोर्टः राम यादव (संपादन)