भारत में अपराध नहीं समलैंगिकता
२ जुलाई २००९हालांकि दिल्ली हाई कोर्ट ने भारतीय संविधान की धारा 377 को हटाने की बात नहीं कही है और अपने फ़ैसले में कहा है कि ग़ैर रज़ामंदी से समलैंगिक संबंध अब भी आपराधिक श्रेणी में रहेंगे.
दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस एपी शाह और जस्टिस एस मुरलीधर की बेंच ने कहा कि उसके फ़ैसले पर तब तक अमल नहीं होगा, जब तक संसद इस दिशा में क़ानून नहीं बना देती. अपने 105 पेज के फ़ैसले में अदालत ने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी आधार पर भेद भाव बराबरी के हमारे अधिकार के ख़िलाफ़ है. इस फ़ैसले से हम व्यक्तिगत पहचान को बराबरी को मान्यता देते हैं.
समलैंगिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही भारतीय ग़ैरसरकारी संस्था नाज़ फ़ाउंडेशन और दूसरे संगठनों की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने साफ़ किया कि इस फ़ैसले से उन मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जिनका धारा 377 के तहत पहले ही निपटारा हो चुका है.
भारतीय संस्कृति में समलैंगिकता को प्रकृति के ख़िलाफ़ समझा जाता है और वहां ब्रिटिश राज से ही समलैंगिकता को ग़ैरक़ानूनी बताया गया है. इसे लेकर 1861 में बना क़ानून अब तक अमल में आ रहा है. लेकिन समलैंगिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही संस्थाओं ने दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है और बड़ी संख्या में लोग फ़ैसले के बाद अदालत के सामने जश्न मनाते देखे गए.
नाज़ फ़ाउंडेशन की प्रमुख अंजलि गोपालन ने इस फ़ैसले पर ख़ुशी जताई और कहा, "आख़िरकार हम 21वीं सदी में पहुंच गए." यह फ़ैसला पूरे भारत में मान्य होगा लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
समलैंगिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्थाओं का दावा है कि पुराने क़ानून से कुंठा और एड्स जैसी बीमारियों का भी ख़तरा बना रहता है क्योंकि समलैंगिक खुलकर सामने आने से कतराते हैं. लेकिन अब क़ानून से मान्यता मिलने के बाद इसमें बदलाव आएगा.
समलैंगिक अधिकारों को लेकर भारत में लगभग नौ साल से क़ानूनी मुक़दमा चल रहा था. अब तक के क़ानून के मुताबिक़ ऐसे मामलों में दस साल तक की सज़ा हो सकती है.
रिपोर्टः एजेंसियां/ ए जमाल
संपादनः ए कुमार