भूकंप के खिलाफ चींटियों की चेतावनी
२१ मार्च २०११और अपनी खोज के तहत वह इस विवादास्पद नतीजे पर पहुंचे कि चींटियों को पहले से ही भूकंप का पता चल जाता है. हर चींटी को नहीं, बल्कि टीला बनाने वाली बड़ी लाल चींटियों को. उनका कहना है कि ये चींटियां उन इलाकों में टीला बनाना पसंद करती हैं, जहां धरती की टेक्टोनिक प्लेट जुड़ती हैं. डुइसबुर्ग एस्सेन यूनिवर्सिटी के जियोलॉजिस्ट उलरिष श्राइबर का मानना है कि ऐसी जगह पर धरती की गहराई से गैस आती है, जिनसे चींटियों के टीले गर्म रहते हैं. साथ ही टेक्टोनिक प्लेटों के बीच की दरार में नमी होती है, जो इन चींटियों को पसंद है.
भूकंप की भविष्यवाणी की कवायद
दो साल से श्राइबर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं का एक दल जर्मनी के पश्चिमी हिस्से के आइफल इलाके में कैमरा की मदद से चौबीसों घंटे चींटियों के दो टीलों का निरीक्षण कर रहा है. उनका कहना है कि जब भी इस इलाके में बहुत मामूली सा भूमिगत कंपन होता है तो इन चींटियों का बर्ताव बदल जाता है. वे कहीं ज्यादा धरती के ऊपर आती हैं, खासकर रात को. हालांकि चींटियां रात को कम सक्रिय होती हैं. श्राइबर का मानना है कि ऐसे मौकों पर गैस का उत्सर्जन कुछ बढ़ जाता है और उनके टीलों का तापमान अधिक होने लगता है. कंपन से जुड़ी चुंबकीय तरंगों की भी इसमें एक भूमिका हो सकती है.
अपने शोध के सिलसिले में श्राइबर इटली के आब्रुजो इलाके में भी गए थे, जहां दो साल पहले लाकिला में एक भयानक भूकंप आया था. उनका कहना है कि वहां उन्हें टेक्टोनिक प्लेटों के जुड़ाव पर काफी चींटियों के टीले मिले. वह इस सिलसिले में इस्तांबुल भी जाना चाहते हैं, जहां आनेवाले समय में एक शक्तिशाली भूकंप की आशंका है. वे मानते हैं कि उनका शोध अभी प्राथमिक स्तर पर है, लेकिन उन्हें उम्मीद है कि इसके आधार पर कभी न कभी भूकंप की भविष्यवाणी की जा सकेगी.
'तर्क में दम नहीं'
अनेक जर्मन वैज्ञानिक श्राइबर के तर्कों को नकारते हैं. पोट्सडाम के जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जिओसाइंसेस के भूकंप विशेषज्ञ हाइको वोइथ का कहना है कि ऐसे तर्क निराधार हैं. वह कहते हैं, "ठोस बात यह है कि भूकंप की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है - न तो मशीनों के जरिए और न ही जानवरों की मदद से". वह मानते हैं कि भूकंप से पहले कुछ जानवरों में अस्वाभाविक हरकतें देखी जा सकती हैं, मसलन हाथियों मे. लेकिन भूकंप की भविष्यवाणी के लिए इसकी कोई योजनाबद्ध जांच अभी तक नहीं हुई है.
इसी प्रकार डार्मश्टाट यूनिवर्सिटी में जीवविज्ञान के पूर्व प्रोफेसर आल्फ्रेड बुषिंगर कहते हैं कि श्राइबर के तर्क बेकार हैं. अगर जाड़े के दौरान भूमिगत गैसों से चीटियों के टीलों का तापमान बढ़ता है, तो इससे उनको नुकसान ही होगा, क्योंकि उनका जमा किया गया वसा जल्द खत्म हो जाएगा.
श्राइबर ऐसी आलोचना से निराश नहीं हैं. उन्हें पूरा विश्वास है कि वह कभी न कभी अपने आलोचकों को विश्वास दिलाने में काबिल होंगे.
रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ
संपादन: ए कुमार