मई का झाड़- किसके लिए
१ मई २०१०लड़कियां सांस थाम कर इंतज़ार करती हैं कि उसे कौन ये तोहफा दे रहा है.
जर्मनी में ये परंपरा तीन सौ साल पुरानी है. कईं गांवों में पहली मई को मुख्य बाज़ार में ये मई का झाड़ लगाया जाता है ठीक वैसे ही जैसे होली के पहले एक हरी टहनी होलिका दहन की जगह पर लगाई जाती है. लेकिन जर्मनी में इस मई झाड़ को फिर जलाया नहीं जाता. इसे लड़की अपने बागीचे में या फिर अपने घर के बाहर लगाती है. या जगह नहीं होने पर इसे छत या खिड़की के बाहर लटका दिया जाता है.
सुंदर रिबिनों से सजा ये माई बाउम लड़का अपनी पसंद की लड़की को देता है.
परंपरा
ये परंपरा सिर्फ़ यहीं तक नहीं. म्युलडॉर्फ के फोल्कर राल्फ लांगे बताते हैं कि पुराने जमाने में यह आयोजन जीवनसाथी ढूंढने का एक सबब होता था. युवा लड़के अपनी दिलरुबा को शादी के लिए पूछते थे. और इसलिए यह सजी धजी टहनी उस लड़की तक पहुंचती थी.
इसके अलावा एक अनोखी परंपरा थी लड़कियों की बोली लगाने की. उन्हें ख़रीदने या बेचने के लिए नहीं बल्कि जिस लड़की की बोली सबसे उंची होती थी उसे मई की रानी यानी माइ कोएनिगिन का दर्जा मिलता था.
अब की बात और
फोलकर कहते हैं कि हम परंपरा को बचा कर रखना चाहते हैं और इसलिए इस दिन अलग अलग तरह के समारोह होते हैं जिसमें गांव के लोग मिलते हैं गाना नाचना होता है. फोल्कर का मानना है कि अगर परंपराएं ख़त्म हो जाएं तो गांव भी ख़त्म हो जाएंगे. अब भी बोलियां लगती हैं लेकिन इस समारोह में जीवन साथी नहीं ढूंढे जाते.
ये टहनी किस लड़की को किसने दी है ये बहुत मायने रखता है. कई बार बहनों में इस बात पर लड़ाइयां भी होती हैं. लेकिन किस लड़के ने किस लड़की को कैसी टहनी दी है इस पर लड़कियों में बहुत बातचीत होती है.
थोड़ा ख़तरा भी
कई लड़के लड़कियों को प्रभावित करना चाहते हैं और इसलिए अपनी महबूबा के घर की खिड़की या फिर छत से इस टहनी को बांध देते हैं लेकिन पिछले दिनों इस कारण कुछ दुर्घटनाएं भी हुईं. इसलिए जिन घरों की दीवारें चिकनी हों वहां इस तरह की टहनिय़ां बांधने की इजाज़त नहीं है.
अब एक और परंपरा शुरू हो गई है कि इस टहनी को सुंदर रिबन से सजाने की बजाए इस पर टॉयलेट पेपर लटका देते हैं और जिन परिवारों को गांवों में पसंद नहीं किया जाता उनके सामने इन्हें रख दिया जाता है.
हालांकि लोग माई बाउम की इस परंपरा को खूब निभाते हैं और आयोजित समारोहों में ख़ूब जश्न मनाते हैं.
रिपोर्टः डॉयचे वेले/आभा मोंढे
संपादनः एम गोपालकृष्णन