"मदर टेरेसा का जीवन एक रहस्य रहा"
२६ अगस्त २०१०मदर टेरेसा की जन्मशती पर जर्मन रेडियो डॉयचे वेले से खास बातचीत में चावला ने कहा, "बीस साल तक लॉरेटो कॉन्वेंट में पढ़ाने के बाद उस महिला को समझ में आता है कि उसकी जिन्दगी तो सड़कों और झुग्गियों के लिए लिखी है. यह पहला और इकलौता मामला रहा, जिसमें वेटिकन ने एक नन को नन रहते हुए सड़कों पर जाने की इजाजत दी. कोई साथी नहीं. कोई मददगार नहीं. कोई पैसा नहीं. उन्होंने अपने कार्य को पूरा किया. सिर्फ अकेले. उनकी जिन्दगी वास्तव में एक रहस्य थी."
मदर टेरेसा की जीवनी लिखने वाले चावला कहते हैं, "उनकी पूरी जिन्दगी एक रहस्य थी. यूगोस्लाविया जैसे देश में सिर्फ 14 साल की एक लड़की नन बनने का फैसला करती है. अपने शहर में नहीं, भारत में. 18 साल की उम्र में वह मिशनरी में शामिल होती है और 19 साल में भारत आ जाती है."
नवीन चावला को आम तौर पर भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर जाना जाता है लेकिन उन्होंने 23 साल मदर टेरेसा के साथ बिताए हैं और उनकी आधिकारिक जीवनी भी लिखी है. चावला अब भी मदर टेरेसा से अपनी पहली मुलाकात याद कर हैरान रह जाते हैं, "मदर टेरेसा उससे भी छोटी कद की थीं, जितना मैं सोचता था. उनकी पीठ मुड़ी हुई थी. उनके हाथ और पैर टेढ़े थे. और जब मैंने उनके हाथ और पैर देखे, तो मुझे महसूस हुआ कि ये किसलिए टेढ़े हैं. उनकी पीठ भी टेढ़ी है. क्योंकि वो इतने सालों से लोगों को सड़कों से उठा रही थीं, खुद उठा रही हैं."
चावला ने कहा, "मैं उनके पीछे खड़ा था. मैंने देखा कि उनकी साड़ी हालांकि हर लिहाज से साफ थी, पर मैंने देखा कि कई जगह वह फटी हुई थी और वहां उन्होंने बहुत करीने से उसे रफू किया हुआ था. मुझे यह महसूस हुआ कि इनमें और जिनकी ये सेवा कर रही थीं, उनमें कोई अंतर नहीं था. वो भी गरीब थे और ये गरीब थीं. अपनी मर्जी से."
मदर टेरेसा पर आरोप लगे हैं कि वे ऐसे लोगों से पैसा लेती थीं, जिनकी अच्छी छवि नहीं थी. इस बारे में पूछे जाने पर चावला ने कहा, "मैंने उनसे पूछा कि ये कहा जाता है कि आप ऐसे लोगों से भी पैसा लेती हैं, जिनसे लेना नहीं चाहिए. तो मदर टेरेसा ने कहा कि देखिए, कोई भी व्यक्ति हो, जो चैरिटी में देना चाहे, यदि वो एक रुपया देना चाहे, या ज्यादा देना चाहे, मैं उसको मना नहीं कर सकती. रोज हजारों लोग गरीबों को खाना खिलाते हैं. मेरा काम नहीं है ये पूछना कि आप क्यों खिलाते हो या इसका पैसा कहां से आता है. मैं फैसला नहीं कर सकती, भगवान फैसला करेगा."
पूर्व यूगोस्लाविया के स्कोप्ये शहर में 1910 में पैदा हुईं मदर टेरेसा 1930 में भारत आ गई थीं और उसके बाद उन्होंने लगातार समाजसेवा की. उन्होंने कोलकाता में मिशनरी ऑफ चैरिटी की स्थापना की और उनके काम की वजह से 1979 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिला.
सिर्फ चार फुट चार इंच की मदर टेरेसा में इतनी शक्ति कहां से आती थी कि वे बिना थके लोगों की सेवा करती थीं, चावला का कहना है, "जब मैंने उनसे पूछा कि आप एक कुष्ठ रोगी को कैसे साफ करती हैं, तो उन्होंने मुझे समझाया कि ये मरीज नहीं है, मेरे लिए ये मेरा भगवान है. ये मेरे लिए जीजस क्राइस्ट है. जो बच्चा सड़क पर मिलता है, वह भी भगवान है, जो लंदन के वाटरलू ब्रिज के नीचे रहते हैं, वह भी भगवान हैं. जो कोई उनके साथ बात भी नहीं करता और मैं उनको खाना देती हूं. तो मेरे लिए ये सब लोग जीसस क्राइस्ट हैं. ये सब मेरे भगवान हैं. शायद यही बात उन्हें गरीबों और असहायों की मदद को प्रेरित करती थी."
नवीन चावला ने मदर टेरेसा पर पहली किताब 1992 में लिखी जो 14 भाषाओं में अनुवाद की गई. अब वह इस किताब में कुछ और जोड़ रहे हैं. मदर टेरेसा की ऐसी चिट्ठियां, जिन्हें आध्यात्मिक अंधेरे के रूप में देखा जाता है. कई लोगों का कहना है कि मदर टेरेसा को अपनी भक्ति पर संदेह हो जाया करता था, लेकिन चावला का कहना है कि उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया. हां, यह जरूर कहा कि उनके ईश्वर ने उन्हें भले छोड़ दिया हो, वह ईश्वर को नहीं छोड़ सकतीं.
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ़
संपादनः महेश झा