महारहस्यों से पर्दा उठाएगा महाप्रयोग
१० सितम्बर २००८दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने जेनेवा में अब तक का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग शुरू कर दिया है. मीलों फैली प्रयोगशाला में इस बात का पता लगाने की कोशिश हो रही है कि हमारी दुनिया कैसे बनी. यह पृथ्वी कैसे तैयार हुई और अणु, परमाणु के रहस्य क्या हैं. विज्ञान पर भरोसा और सफल शुरुआत के बाद इस महाप्रयोग से दुनिया के अस्तित्व पर किसी तरह के ख़तरे का रहा सहा अंदेशा ख़त्म हो गया है.
स्विट्ज़रलैंड और फ़्रांस की सीमा पर ज़मीन के लगभग 175 मीटर अंदर 27 किलोमीटर लंबी सुरंगनुमा प्रयोगशाला तैयार की गई है. इसे तैयार करने में लगभग 12 साल का वक्त लगा. सुरंग के अंदर प्रोटॉन कणों को आपस में टकराने की योजना है, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बेहतर जानकारी मिल सके. मंगलवार की सुबह जैसे ही वैज्ञानिकों ने इस सुरंग में प्रोटॉन कण छोड़े, वहां मौजूद हज़ारों वैज्ञानिकों और रिसर्च छात्रों में ख़ुशी और उल्लास छा गया. प्रयोग का मक़सद उस वक्त की परिस्थिति पैदा करना है, जब अरबों साल पहले हमारी दुनिया बनी थी.
प्रयोगशाला की सुरंग में क़रीब 1,000 सिलेंड्रिकल चुंबक लगे हैं, जो प्रोटॉनों की टक्कर को अंजाम देने में मदद करेंगे. इन प्रोटॉनों को दो विपरीत दिशाओं से सुरंग में भेजा जाएगा और क़रीब 60 करोड़ बार इनकी टक्कर की योजना है. इस सुरंग को लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर यानी एलएचसी कहते हैं. समझा जाता है कि टक्कर के बाद जो परिस्थिति पैदा होगी, वह लगभग वैसी ही स्थिति होगी, जब लगभग 13 खरब साल पहले बिग बैंग के बाद सेकंड के एक अरबवें हिस्से में ब्रह्मांड का निर्माण हुआ था. बिग बैंग उस महान क्षण को कहते हैं, जिसके बाद हमारे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ था.
विज्ञान जगत ने इस प्रयोग के शुरू होने से पहले इस बात का अंदेशा जताया था कि प्रकाश की गति से प्रोटॉनों की टक्कर से विशाल ऊर्जा बनेगी, जिससे ब्लैक होल का निर्माण हो सकता है और यह ब्लैक होल आस पास की तमाम चीज़ों को ख़ुद में खींच कर पृथ्वी का अंत कर सकती है. कई जगहों पर तो इसे क़यामत की मशीन भी कहा जाने लगा था. लेकिन बाद में बड़े वैज्ञानिकों ने इस आशंकाओं को सिरे से ख़ारिज कर दिया. उनका कहना है कि अगर ब्लैक होल में सब कुछ समा जाता, तो पहले भी पृथ्वी के आस पास कई बार ब्लैक होल बन सकते थे और पृथ्वी ख़त्म हो सकती थी. इस प्रयोग से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रोटॉनों की टक्कर में सिर्फ़ इतनी ऊर्जा पैदा हो सकती है, जितनी दो मच्छरों के तेज़ गति से टकराने पर होती है. इससे ज़्यादा कुछ नहीं. उनका कहना है कि दुनिया नहीं टूटेगी, अगर कुछ टूटेगा, तो सिर्फ़ प्रोटॉन.
जेनेवा में चल रहे इस प्रयोग को यूरोपीय संघ की परमाणु रिसर्च इकाई सेर्न अंजाम दे रही है, जिसे यूरोपीय देशों की सरकारों का समर्थन हासिल है. समझा जाता है कि इस प्रयोग के बाद डार्क मैटर्स के बारे में भी पता लग सकेगा, यानी उन चीज़ों के बारे में जो हमें दिखाई नहीं देती और जिनके बारे में दुनिया को अब तक कुछ पता नहीं है. वैज्ञानिकों का दावा है कि यह ब्रह्मांड, सूरज, चांद, तारे और जितनी आकाशगंगाओं के बारे में दुनिया जानती है, वह सृष्टि का सिर्फ़ चार फ़ीसदी है. यानी 96 फ़ीसदी चीज़ें ऐसी हैं, जिनके बारे में हमें कुछ पता ही नहीं. इनमें से 23 फ़ीसदी डार्क मैटर हैं, जबकि 73 फ़ीसदी डार्क एनर्जी यानी अनदेखी ऊर्जा.
सेर्न की प्रयोगशाला में शुरू हुए इस रिसर्च का एक और बड़ा काम mass यानी द्रव्यमान के बारे में पता लगाना है. वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि अलग अलग वस्तुओं का द्रव्यमान अलग अलग क्यों होता है. इस प्रयोग में शामिल हज़ारों वैज्ञानिकों में इस बात का कौतूहल है कि एलएचसी में काम पूरा होने के बाद वे इस जटिल सवाल का जवाब भी ढूंढ पाएंगे. वैज्ञानिकों की राय है कि यह प्रयोग इतना विशाल है, जिसके बाद दुनिया भर की भौतिक विज्ञान की किताबों में बदलाव करने पड़ सकते हैं और कई परिभाषाओं को सुधारना पड़ सकता है.
प्रयोग में गॉड पार्टिकल यानी ब्रहम कण के रहस्य से भी पर्दा उठाने की कोशिश होगी. हालांकि मौजूदा वक्त के सबसे बड़े भौतिक विज्ञानी स्टीफ़न हॉकिन्स का मानना है कि जेनेवा में चल रहे इस प्रयोग से गॉड पार्टिकल का रहस्य नहीं सुलझ पाएगा. जानकारों का मानना है कि अभी तो इस महाप्रयोग की सिर्फ़ शुरुआत भर हुई है और इसके निष्कर्ष या नतीजे आने में अभी लंबा वक्त लग सकता है.
इस विशालकाय प्रयोग में भारत ने भी बड़ी भूमिका निभाई है. इसके लगभग 30 वैज्ञानिकों सहित एक बड़ी टीम ने इस महाप्रयोग में शिरकत की है. हालांकि इसमें सबसे ज़्यादा यूरोप के 26 देशों के वैज्ञानिक हिस्सा ले रहे हैं, लेकिन इसकी विशालता को देखते हुए अमेरिका और भारत सहित दुनिया भर के क़रीब 1,000 लोगों की टीम तैयार की गई. इस प्रोजेक्ट की परिकल्पना 1980 के दशक में की गई थी लेकिन इसे मंज़ूरी मिलने में काफ़ी वक्त लगा और इस पर 1996 में ही काम शुरू हो पाया.