मासूमों को बहकाने के लिए आतंक का कार्टून
१ अगस्त २०११इन कार्टून फिल्मों की कुछ तस्वीरें सामने आई हैं. इन तस्वीरों में युवा और बच्चों को नकाब और सैनिक वर्दी पहने राइफल से गोलियां चलाते, जंग में हिस्सा लेते और हमला करते दिखाया गया है. कार्टून तैयार करने वाला शख्स एक्यूएसपी यानी अरब प्रायद्वीप में अल कायदा का समर्थक है. कार्टून फिल्मों के इस्तेमाल की खबर का एलान अब अल लाइथ अल यमनी नाम के शख्स ने किया है जो जिहादियों की फोरम का सदस्य है. यह एलान पासवर्ड से खुलने वाली अरबी भाषा की वेबसाइट अल शामुक पर मध्य जुलाई में किया गया. इस बारे में जानकारी क्विलीयम फाउंडेशन ने दी जो पूर्व जिहादियों का एक गुट है और अब चरमपंथ को दूर करने की मुहिम में जुटा है.
एक्यूएसपी का बढ़ता खतरा
एक्यूएसपी मुख्य रूप से अल कायदा से जुड़े यमनी और सउदी नागरिकों से मिल कर बना है और एक बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है. अमेरिका और यमन के पड़ोसी देशों को डर है कि यमन में सत्ता के खालीपन का इस्तेमाल अल कायदा और दूसरे आतंकवादी गुट अपने हरकतों का दायरा बढ़ाने में कर सकते हैं. यहां पिछले पांच महीनों से राष्ट्रपति अली अब्दुलाह सालेह के शासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं और देश में सुरक्षा की हालत बिल्कुल निचले पायदान पर है.
एक्यूएसपी पश्चिमी देशों में कई बम धमाकों और हमले की कोशिशों के लिए जिम्मेदार है. इनमें 2009 में डेट्रॉयट में एक विमान को गिराने की कोशिस और हाल ही में दक्षिण यमन में एक ब्रिटिश नागरिक की कार को बम से उड़ाने की घटनाएं शामिल हैं.
नई मीडिया नीति
नया कार्टून अल कायदा की नई मीडिया नीति का हिस्सा है और यह इसे मजबूत बनाएगा. इसमें हमला न कर पाने की स्थिति में ऑनलाइन दुष्प्रचार के जरिए समर्थन जुटाना भी शामिल है. एक्यूएसपी ने अल कायदा को इंटरनेट का इस्तेमाल करने में काफी मदद दी है. यही संगठन अल कायदा के लिए अरबी भाषा में बढ़िया प्रचार सामग्री मुहैया कराता है. इसके अलावा किशोरों के लिए इंस्पायर नाम की ऑनलाइन पत्रिका अंग्रेजी में भी चलाई जा रही है. हाल ही में यमन के एक चरमपंथी गुट ने महिलाओं के लिए भी एक ऑनलाइन पत्रिका निकाली है जो मेकअप और पवित्रता के बारे में उन्हें सलाह देती है.
जन संपर्क के जरिए अल कायदा का आधार बढ़ाने की कोशिशों में फ्लैश आधारित एक कार्टून दिसंबर 2005 में भी बनाया गया था. इसके साथ ही जनवरी 2006 में और उसके बाद 'स्टिक जिहाद' नाम के एक एनीमेशन के जरिए इराक में अल कायदा के लड़ाकों को विदेशी सैनिकों से लड़ते भी दिखाया गया. मार्च में मीडिया को यू ट्यूब पर एक एमेच्योर विडियो भी मिला जिसमें छोटे बच्चों को जिनमें कुछ की उम्र तो केवल 3-4 साल थी, आत्मघाती हमला करते दिखाया गया. इस विडियो में बच्चे हाथों में धूल लेकर हवा में उड़ाते हैं और फिर जमीन पर गिर जाते हैं, यह दिखाने के लिए कि धमाके में मौत कैसे होती है. इस फिल्म के सूत्र का तो पता नहीं लग सका लेकिन देखने से ऐसा महसूस होता है कि इसे पाकिस्तान-अफगानिस्तान की सीमा पर कहीं शूट किया गया है.
क्विलियम के विश्लेषक नोमान बेनोटमान ने एक बयान में कहा कि मुस्लिम माता पिता देखेंगे कि कैसे कार्टून के जरिए अल कायदा उनके परिवार को बांट रहा है और उनके अधिकारों को घटा रहा है. बेनोटमान पूर्व में इस्लामी आतंकवादी और ओसामा बिन लादेन के सहयोगी रहे हैं. वह मानते हैं कि अल कायदा की योजना उल्टी भी पड़ सकती है.
कार्टून के जरिए अलग अलग लोगों तक जटिल संदेशों को पहुचाया जा सकता है लेकिन इस कार्रवाई से एक संदेश यह भी जाएगा कि अल कायदा, "अब अरब जगत में ज्यादा लोगों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है."
एक नया श्रोता
इस्लामी वेबसाइटों की निगरानी करने वाली संस्था साइट के वरिष्ठ विश्लेषक एडम राइसमान ने डॉयचे वेले से कहा, "बच्चों पर ध्यान देने की हरकतों से पता चलता है कि जिहादी तत्व कम उम्र में ही उनका दिमाग भरने की कोशिश कर रहे हैं." उन्होंने बताया कि अल यमनी के संदेश के मुताबिक कार्टून केवल एक्यूएसपी के लड़ाकों की जंग और उनकी महिमा का ही बखान नहीं करेगा बल्कि यह भी दिखाएगा कि "शरिया पर चलने वाली सरकार कितनी फायदेमंद है और जिसे हासिल करना एक्यूएसपी का लक्ष्य है."
कॉमिक्स की योजना ने मीडिया का ध्यान खींचा है और इस बारे में दुनियाभर की वेबसाइटों और अखबारों पर लिखा जा रहा है. जिहादिका डॉट कॉम नाम की एक वेबसाइट के मुताबिक मीडिया का ध्यान खींचने से शामुक फोरम के सदस्य काफी उत्साहित हैं और अपने कार्टूनिस्ट से कह रहे हैं कि वह जल्द से जल्द फिल्म बनाए.
राइसमान मानते हैं कि लोगों का ध्यान इसलिए इधर जा रहा है क्योंकि, "अल कायदा बच्चों के दिमाग को निशाना बना रहा है, वो भी ऐसे समय में जब अल कायदा और उसके समर्थक एक बड़ा हमला और अपने सुनने वालों तक पहुंचने के लिए नए इलाकों की तलाश में हैं."
जिहादिका डॉट कॉम के संपादक और अमेरिकी विदेश विभाग में हिंसक आतंकवाद विरोध के लिए सलाहकार रहे विल मैककांट्स ने डॉयचे वेले से कहा कि कार्टून अल कायदा के दुष्प्रचार का सबसे आधुनिक तरीका है. इसे बनाने के लिए संगठनात्मक रूप से ज्यादा कुशलता की जरूरत होती है. लोग इसलिए भी ध्यान दे रहे हैं क्योंकि सलाफी या इस्लामी कट्टरपंथी इंसान को तस्वीरों के जरिए पेश करने के लिए मना करते हैं. मैककांट्स के मुताबिक, "यह एक जोखिम भरा कदम है लेकिन इससे यह भी जाहिर होता है कि कई बार व्यवहारिकता, धार्मिक सिद्धांतों पर भारी पड़ती है."
बरसे कम गरजे ज्यादा
कार्टून की गरज मुमकिन है कि इसकी बौछारों से कही ज्यादा हो. बहुत से जानकार इस बात पर भी संदेह जता रहे हैं कि क्या वास्तव में इन कार्टूनों का बच्चों पर कोई असर होगा. जन स्वास्थ्य पर रिसर्च करने वाली और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बच्चों पर असर का अध्ययन करने वाली डॉ. चेरिल ओल्सॉन ने डॉयचे वेले को बताया, "बच्चा किसी कार्टून से कोई नया विचार या नया लक्ष्य अपना लेगा यह बिल्कुल अव्यवहारिक है. बच्चों को इन विचारों के बारे में भरोसेमंद और किसी अधिकारपूर्ण जरिए से बिना बताए यह संभव नहीं है. इसे किसी बड़े संदर्भ का हिस्सा होना पड़ेगा." ओस्लॉन का मानना है कि खतरा उतना नहीं है और "वे लोग बस खलबली मचाना चाहते हैं जो जाहिर है कि होगा ही."
इसी तरह नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ के न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. जॉर्डन ग्राफमैन ने एक बात सामने रखी है जिस पर पश्चिमी देशें में अक्सर चर्चा होती है. उनका मानना है कि इस बात को मानने वाले बहुत से लोग हैं कि लगातार हिंसक मीडिया के दायरे में आने वाले बच्चों की संवेदनशीलता उनके प्रति कम हो सकती है लेकिन ऐसा मानने वाले बहुत कम हैं कि "कार्टून या कोई और दूसरा विजुअल मीडिया जिसमें हिंसा हो, पाठक या देखने वाले के मन में आक्रामकता को बढ़ावा देगा."
रिपोर्टः रॉयटर्स/शिवानी माथुर/एन रंजन
संपादनः वी कुमार