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मुंबई हमलों के साये में किताबों का व्यापार

१५ अक्टूबर २०१२

जल्द ही पाकिस्तान के बैंक भारत में अपना काम शुरू करेंगे. वहीं भारत के बैंक और कई दूसरे व्यवसायी अब पाकिस्तान में अपना बिजनेस जमाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ये इतना आसान भी नहीं है.

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तस्वीर: Johi Sindh Pakistan

2008 के मुंबई हमलों बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य होने की तरफ बढ़ रहे हैं. दोनों देशों के व्यापारी नए बाजारों को लेकर काफी खुश हैं. नई दिल्ली में गुडविल पब्लिशर्स चला रहीं रितु चौधरी बच्चों की किताबें छापती हैं. उनकी कंपनी बच्चों के लिए कहानियां, शैक्षणिक और कलरिंग बुक्स बनाती है. भारत के अलावा गुडविल पब्लिशर्स श्रीलंका, बांग्लादेश, अफ्रीका और पाकिस्तान में किताबें बेचता है. "हमारे यहां से सब तरह की किताबें जाती हैं, बच्चों के लिए किताबें, जिनमें कुछ बनाने या कुछ करने के बारे में लिखा हो, पाठ्यक्रम की किताबें, एन्साइक्लोपीडिया." जहां तक पाकिस्तान में इन किताबों को बेचने की बात है, चौधरी कहती हैं कि पाकिस्तान में उनकी किताबों की कीमत भारत जितनी ही है और इसमें कोई खास फर्क नहीं है.

वहीं, पाकिस्तान में बुक सेंटर प्रकाशन चला रहे आबिद हमीद वारिस पुस्तकालयों और स्कूलों में अपनी किताबें बेचते हैं. इनमें से कई किताबें विदेशों से आयात होती हैं. इनमें भारतीय पुस्तकें भी शामिल हैं. वारिस भारतीय प्रकाशनों और लेखकों से किताबों के अधिकार खरीदते हैं और पाकिस्तान में इन्हें छापते हैं. वारिस की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि भारत में ज्यादातर स्कूल विदेशी किताबों को प्रोत्साहन नहीं देते. "भारतीय स्कूल पाकिस्तानी प्रकाशकों को पसंद ही नहीं करते. इसकी वजह राजनीतिक है." 2005 में वारिस अपनी किताबें लेकर नई दिल्ली की स्कूलों में गए. उनका कहना है कि अध्यापकों को किताबें भी पसंद आईं, लेकिन उन्होंने किताबें खरीदी नहीं. एक वजह इसकी यह हो सकती है कि भारतीय स्कूल पाकिस्तान ही नहीं बल्कि किसी भी दूसरे देश की किताबें अपने स्कूलों में लगाना पसंद नहीं करते. "भारतीय स्कूल ज्यादा राष्ट्रवादी हैं. वह अपने देश के प्रकाशकों को छोड़कर दूसरे देश की किताबें लेना पसंद नहीं करेंगे."

Frankfurter Buchmesse - Pakistanische Verlage
वारिस बुक सेंटर के आबिद वारिस, फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले मेंतस्वीर: DW

भारतीय प्रकाशक ज्यादातर विदेशी और पश्चिमी बाजारों पर ध्यान दे रहे हैं. भारत का बढ़ता शिक्षा बाजार भी एक कारण है कि भारतीय प्रकाशक अपने देश तक ही सीमित रह पाते हैं. कुछ भारतीय प्रकाशकों को छोड़कर बाकी प्रकाशक ज्यादातर बच्चों और स्कूलों के लिए एक ही तरह की किताबें छाप रहे हैं. वारिस के मुताबिक इस क्षेत्र में पाकिस्तान की किताबें भारत की ओर खास योगदान दे सकती हैं. "पाकिस्तानी प्रकाशक थोड़े हैं लेकिन वे अपनी अपनी चीजें तैयार करते हैं, स्कूल के कोर्स के मुताबिक. एक दूसरे की नकल कम कर रहे हैं."

जहां तक किताबों का सवाल है, जितनी ज्यादा किताबें और जितनी अलग अलग जगहों से किताबें आएंगीं, उससे फायदा ही होगा. पाकिस्तान में कई स्कूलों ने भारतीय किताबों को अपने कोर्स में शामिल किया है. लेकिन कई बार बढ़ती कस्टम ड्यूटी की वजह से स्कूल महंगी किताबें नहीं खरीद पाते हैं. इसके लिए ज्यादातर पाकिस्तानी प्रकाशक भारतीय किताबों के अधिकार खरीदते हैं और उन्हें वहीं छापते हैं. वारिस का कहना है कि जहां तक भविष्य में पाकिस्तान और भारत के बीच रिश्तों में बेहतरी और उसके साथ किताबों का लेन देन बढ़ने की बात है, "दोनों देशों की सरकारें इतनी गंभीर नहीं हैं."

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः आभा मोंढे

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