ये बच्चों के खेल नहीं है
२३ मार्च २०१२सात मीटर उंची बाड़ के सामने खड़ा सांवले रंग का शख्स सोच में डूबा है. बाड़ के दूसरी तरफ उसके सपनों की दुनिया यूरोप है लेकिन जोखिम से भरे यूरोप तक भाग कर पहुंचना इतना आसान भी नहीं. सीमा पुलिस नजदीक आ रही है, फ्रंटियर्स नाम के इस वीडियो गेम की पुलिस हाड़मांस से नहीं पिक्सल से बनी है. घूस की रकम से उसकी जेब गर्म करना है या फिर किसी को उनकी नजरों से बच के निकल जाना है यह खेलने वाले को ही तय करना है. एक स्तर से दूसरे स्तर और फिर आगे तक बढ़ते जाइए और यूरोप की बाहरी सीमा पार होती जाएगी या फिर आप चाहें तो गार्ड की भूमिका भी निभा सकते हैं. असल जिंदगी पर बने इस वीडियो गेम को 2008 में ऑस्ट्रिया की गोल्ड एक्स्ट्रा ग्रुप ने बनाया. इस तरह के गंभीर खेलों से वीडियो गेम के बाजार भरे पड़े हैं और ये खेल बच्चों के नहीं हैं.
प्रशा से शुरुआत
आधुनिक गंभीर खेलों की शुरुआत 19वीं सदी के शुरू में प्रशा की सेना के लिए तैयार क्रीगस्पील से मानी जा सकती है. जर्मन भाषा के इस शब्द का मतलब है "जंग का खेल". सेना के अधिकारियों ने इस खेल के नियम बनाए थे और यह सैनिकों को जंग का प्रशिक्षण देने के लिए तैयार किया गया. नए दौर में भी राजनेता अक्सर कागजी जंग के खेलों के सहारे संभावित सैनिक अभियानों के नतीजे दिखाते हैं.
इसी हफ्ते न्यूयॉर्क टाइम्स ने खबर दी कि अमेरिकी सेना के एक गोपनीय जंगी सिम्युलेटर ने दिखाया कि ईरान पर इस्राएली हमले की सूरत में अमेरिका एक बड़े क्षेत्रीय विवाद में फंस जाएगा जिसमें सैकड़ों अमेरिकी मारे जाएंगे. सेना भी गंभीर वीडियो गेम में दिलचस्पी दिखाती है. पिछले साल अमेरिकी सरकार ने रेथियॉन बीबीएन टेक्नोलॉजी को सेना के लिए गंभीर वीडियो गेम बनाने का 1 करोड़ डॉलर का ठेका दिया.
शरणार्थियों की कहानी
ऑस्ट्रिया में वीडियो गेम बनाने वालों ने शरणार्थियों पर खूब रिसर्च किया. शरणार्थियों के साथ ही सहायता एजेंसियों और सीमा पर काम करने वाली एजेंसियों से बातचीत की गई. गोल्ड एक्स्ट्रा के थोबियास हैम्मरले ने कार्ल्सरुहे के सेंटर फॉर आर्ट एंड मीडिया में एक कांफ्रेंस के दौरान वीडियो गेम तैयार करने की प्रक्रिया के बारे में बताया. हैम्मरले ने कहा, "शरणार्थी चाहते थे कि हम उनकी कहानी बताएं. उन्होंने खुद को कंप्युटर के चरित्रों में दिखाने की हमें मंजूरी दे दी." खेल के आखिर में खिलाड़ी को सच्चाई का सामना कराया जाता है. वो एक ऐसी जगह पहुंचते हैं जहां क्लिक करने पर वो शरणार्थियों के सच्चे इंटरव्यू सुनते हैं. गंभीर खेलों के आगे बढ़ने के पीछे यही सिद्धांत काम करता है. यह इस तरह से बनाए गए हैं कि खिलाड़ी सच के बारे में सोचें. वीडियो गेम्स में अब न्यूयॉर्क के 11 सितंबर के हमले और इसी तरह की असल घटनाएं शामिल हो गई हैं.
अजेय वीडियो गेम
मध्यपूर्व के एक बेनाम शहर में आतंकवादी छिपे हैं. पुलिस या सैनिक के रूप में खिलाड़ी उनका सामना करने जाता है. वह गोली चलाता है और निशाने पर हैं आतंकवादी. लेकिन अचानक आतंकवादी गायब हो जाते हैं और पता चलता है कि खेलने वाले ने बेगुनाह आम नागरिकों को मार दिया. जितने बेगुनाह लोगों की जान जाती है उतने ज्यादा आम लोग हथियार उठा कर आतंकवादी बनते जाते हैं. मतलब साफ है कि खिलाड़ी कभी नहीं जीत सकता. गंभीर खेलों में ज्यादातर गैर जरूरी हिंसा से बचा जाता है. वीडियो गेम तैयार करने वालों का मानना है कि इन खेलों से न सिर्फ राजनीतिक संदेश दिए जा सकते हैं बल्कि व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो हर जगह इनका इस्तेमाल हो सकता है.
पिछले कुछ सालों से जर्मनी के कंप्यूटर गेम अवॉर्ड में सीरियस गेम्स अवॉर्ड भी दिए जा रहे हैं. पिछले साल यह अवॉर्ड विंटरफेस्ट को मिला जो अनपढ़ लोगों को पढ़ना लिखना और रोजमर्रे में काम आने वाला गणित सिखाता है.
पीछे है जर्मनी
जर्मनी की कई कंपनियों ने गेम्स बनाने में दक्षता हासिल की है. इसके बावजूद ऐसे लोग कम नहीं जो जर्मनी को इस मामले में थोड़ा पीछे मानते हैं. जर्मन कंप्यूटर गेमिंग उद्योग के गुट गेम से जुड़े थॉर्स्टन उंगर कहते हैं, "अमेरिका, स्कैंडिनेविया, ब्रिटेन, नीदरलैंड्स या फ्रांस हमारी तुलना में ज्यादा प्रगतिशील है." पर ऐसा नहीं कि जर्मनी चुप बैठा हो. गंभीर वीडियो गेम के सहारे पढ़ाई लिखाई और इस तरह की चीजों को कितना आगे बढ़ाया जा सकता है इस पर गेम्स डेज 2012 के सम्मेलन में विस्तार से चर्चा होगी जो सितंबर में पश्चिमी शहर डार्मस्टाट में होने जा रहा है.
रिपोर्टः लॉरा डॉइंग/एन रंजन
संपादनः महेश झा