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लालफीताशाही में गुम आजादी की फाइल

२२ मार्च २०११

उनकी जिंदगी की फाइल लालफीताशाही के चक्रव्यूह में कहीं गुम हो गई है. इन्हें नहीं पता कि क्या होने वाला है और न ही उनके पास आजाद होने का कोई जरिया है. यह पश्चिम बंगाल की जेलों में बंद बांग्लग्देशी हैं.

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तस्वीर: DW/Prabhakar Mani

विभिन्न अपराधों के आरोप में राज्य के अलग-अलग हिस्सों से गिरफ्तार एक हजार से ज्यादा बांग्लादेशी स्थानीय अदालतों की ओर से सुनाई गई सजा वर्षों पहले पूरी कर लेने के बावजूद अपनी रिहाई का इंतजार कर रहे हैं. एक मानवाधिकार संगठन मासूम की ओर से कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका से इस तथ्य का खुलासा हुआ है. याचिका में ऐसे लोगों को तुरंत रिहा कर बांग्लादेश भेजने की अपील की गई है.

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रूबीनातस्वीर: DW/Prabhakar Mani

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बंगाल की विभिन्न जेलों में ऐसे 1076 बांग्लादेशी नागरिक हैं जिनकी सजा की मियाद कब की पूरी हो चुकी है. इनमें से कुछ लोगों की सजा तो वर्ष 2008 में यानी तीन साल पहले ही पूरी हो चुकी है. लेकिन अब तक उनकी रिहाई नहीं हो सकी है. मासूम ने अपनी याचिका में कहा है कि सजा पूरी कर लेने वाले विदेशी नागरिकों को तुरंत उके देश भेजने की व्यवस्था की जानी चाहिए. ऐसे कैदियों को जेल में रखना सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और संयुक्त राष्ट्र की घोषणा का उल्लंघन है. लेकिन इन तमाम मामलों में केंद्र व राज्य सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया है. नतीजतन जेल में बंद बांग्लादेशी नागरिक अपने मौलिक अधिकार से वंचित हैं.

बांग्लादेश से लगी बंगाल की लंबी सीमा पर कई स्थानों पर कंटीले तारों की बाड़ नहीं होने की वजह से उस पार से नागरिकों की घुसपैठ और तस्करी आम है. यह लोग अक्सर सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ के हत्थे चढ़ जाते हैं.

बांग्लादेश में जैसोर के रहने वाले सादिक अपने भाई हफीज की रिहाई के लिए कोलकाता से दिल्ली तक अधिकारियों के चक्कर लगाते-लगाते थक चुके हैं. यहां बंगाल से लगी बनगांव सीमा पर सीमा सुरक्षा बल ने आठ साल पहले उनके भाई को तस्करी और अवैध घुसपैठ की कोशिश के दौरान गिरफ्तार किया था. अदालत ने उनको पांच साल की सजा सुनाई थी. लेकिन सजा की मियाद पूरी होने के तीन साल बाद भी हफीज जेल की कोठरी में जीवन बिताने को मजबूर हैं. सादिक बताते हैं, कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है. सबलोग एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डाल कर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं.

17 साल के मजीद की कहानी तो और मार्मिक है. वह तो पशुओं को चराते हुए गलती से भारतीय सीमा में आ गया था. बीएसएफ ने उसे पकड़ लिया था. अदालत ने एक साल की जो सजा सुनाई थी उसे पूरे हुए दो साल बीत गए हैं. लेकिन मजीद अब भी जेल की सीखचों के पीछे उस दिन का इंतजार कर रहा है जब वह अपने देश लौट कर परिजनों से मिल सकेगा. मजीद की मां रूबीना हर महीने-दो महीने पर बेटे की रिहाई की आस लिए कोलकाता आती है. लेकिन हर बार उसे निराशा ही हाथ लगती है. गरीब होने की वजह से वह बार-बार कोलकाता और दिल्ली की दौड़ नहीं लगा सकती. वह सवाल करती है कि आखिर एक छोटी सी गलती के लिए मेरे बेटे को इतनी बड़ी सजा क्यों मिल रही है.

मासूम ने अदालत से केंद्र व राज्य सरकार से ऐसे कैदियों की सूची पेश करने का निर्देश देने का अनुरोध किया है जो सजा काट लेने के बावजूद अब तक जेलों में दिन गुजार रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में जेल विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि विदेशी कैदियों की रिहाई और उनको स्वदेश भेजने का मामला विदेश मंत्रालय के अधीन है. हम तो कैदियों की सजा पूरी होने की सूचना राज्य सरकार को समय पर भेज देते हैं. वह ऐसे मामलों को विदेश मंत्रालय के पास भेजती है. कोलकाता से दिल्ली तक फाइलों की आवाजाही के दौरान इन मामलों में कुछ देरी स्वाभाविक है.

यानी इन कैदियों की आजादी देश की लालफीताशाही के चक्रव्यूह में फंस कर रह गई है. इनको आजादी कब मिलेगी, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. ऐसे में ऐसे एक हजार से ज्यादा लोग सजा पूरी करने के बावजूद बिना किसी गुनाह के आगे की सजा काटने पर मजबूर हैं.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः महेश झा

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