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वेस्टरवेले ने कहा, भारत अहम रणनीतिक साझेदार

२१ जून २०१२

जर्मन विदेश मंत्री गीडो वेस्टरवेले भारत और बांग्लादेश की यात्रा पर हैं. एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने की हैसियत से भारत को एक अहम अंतरराष्ट्रीय ताकत के तौर पर देखा जा रहा है.

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तस्वीर: dapd

जर्मन सरकार के लिए भारत केवल बड़ा बाजार नहीं है. विदेश मंत्री वेस्टरवेले ने अपनी यात्रा से पहले ही साफ कर दिया, "भारत एक अहम रणनीतिक साझेदार है और एक उभरती ताकत है, जिसकी भविष्य में अहमियत और बढ़ेगी. एशिया की सुरक्षा प्रणाली और समृद्धि के लिए भारत का योगदान विश्व भर में स्थिरता और विकास के लिए बहुत ही निर्णायक होगा." दोनों देश अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों के लिए करीबी तौर पर काम कर रहे हैं. बर्लिन और नई दिल्ली, दोनों चाहते हैं कि उनके देशों को स्थायी सदस्यता मिले.

वैश्विक संकटों के प्रभाव

भारत में लगभग दो दशकों से चल रहे आर्थिक सुधारों के बाद भी देश वैश्विक आर्थिक संकटों से बचा रहा है. इसकी वजह है भारत के भीतर तेजी से बढ़ता बाजार और यहां का मध्यवर्ग, जिसकी आय और समृद्धि बढ़ रही है. साथ ही, भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त कर्मचारियों की भी भरमार है जिसकी वजह से विदेशी कंपनियां खास तौर पर भारत आती हैं. लेकिन चीन के मुकाबले भारत में निर्यात काफी सीमित रहा है और वह विदेशी निवेश पर भी बहुत ज्यादा निर्भर नहीं है. भारतीय कंपनियां कोशिश करती हैं कि वे विदेशों के बजाय अपने ही देश में निवेश करें.

लेकिन विश्व भर में चल रहे आर्थिक संकट से भारत भी बच नहीं सका है. जर्मन मशीन और कारखाना संगठन के भारतीय प्रतिनिधि राजेश नाथ कहते हैं कि इस वक्त भारतीय उद्योग में मंदी चल रही है. इसके कई कारण हैं, "भारत में निवेश नहीं हो रहा है. हाल ही में सरकार ने मूलभूत संरचना के प्रॉजेक्ट में बड़े निवेश की बात की है. लेकिन यह केवल कुछ समय के लिए मददगार साबित होगा. उद्योग के लिए सबसे बड़ी परेशानी है ऊंचे ब्याज दर. भारत की मुद्रा भी पिछले हफ्तों में काफी गिरी है. इसलिए तकनीक और साज सामान का आयात काफी महंगा हो गया है."

जर्मन निर्यात पर असर नहीं

Krishna und Westerwelle
तस्वीर: AP

अंतरराष्ट्रीय बाजारों से जुड़े सारे उद्योगों को यूरो संकट से परेशानी हो रही है. लेकिन नाथ का कहना है कि अब भी इसके बुरे असर साफ नहीं हैं. 2011 में जर्मन मशीनों का भारत में आयात 18 प्रतिशत से बढ़ा है. जर्मन कंपनियां अब भी पुराने समझौतों पर काम कर रही हैं. लेकिन अगर भारत में मंदी जारी रही, तो जर्मन निर्यात पर असर पड़ सकता है.

भारत में आर्थिक और मुद्रा संकट के अलावा भी कई परेशानियां हैं. लोकतंत्र होने की वजह से चीन के मुकाबले यहां फैसले बहुत धीरे होते हैं. गठबंधनों और स्थानीय पार्टियां भारत की राजनीति का हिस्सा हैं और कई बार सुधार को लेकर फैसले राजनीतिक वजहों से टाल या रोक दिए जाते हैं.

लेकिन भारत में मुक्त बाजार राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद आगे बढ़ती है और खुद मुश्किलों को सही करती है. पंप, सिलिंडर और अन्य मशीनें बनाने वाली जर्मन कंपनी हावे हाइड्रॉलिक्स के लोकेश बोपन्ना राजनीतिक स्थिति को आर्थिक स्थिति से अलग बताते हैं. कहते हैं, "निवेश एक बात है और सरकार के फैसलों में ठहराव दूसरी बात है. मेरे कई ग्राहक हैं जो इस वक्त फंसे हुए हैं. अगर उनके पास ऑर्डर होते भी, तो भी उत्पादन के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं." लेकिन बोपन्ना कहते हैं कि इसके लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

जर्मन विदेश मंत्री इन्हीं हालात में बंगलूरू पहुंच रहे हैं. 150 से ज्यादा जर्मन कंपनियां इस शहर में व्यापार कर रही हैं. 2008 में यहां एक जर्मन दूतावास भी खोला गया. विदेश मंत्रालय का कहना है कि इसके जरिए विश्व के सबसे अहम आईटी केंद्रों में जर्मन सरकार अपना प्रचार करना चाहती है और जर्मनी और भारत के बीच व्यापार संबंधों को और बेहतर करना चाहती है. वेस्टरवेले की मुलाकात भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से भी होगी.

रिपोर्टः संजीव बर्मन/एमजी

संपादनः महेश झा