शिशु मृत्यु दर में भारत का स्थान पांचवां
५ अक्टूबर २००९"चैरिटी सेव द चिल्ड्रन" नामक एन. जी. ओ. द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में यह पाया गया है कि विश्व में नवजात शिशुओं की मृत्यु में भारत का स्थान पांचवां है. यह संस्था वैश्विक अभियान के तहत दुनिया भर के सभी देशों में शिशुओं की मृत्यु दर में कमी लाने का प्रयास कर रही है. इस शोध में अगस्त और सितम्बर महीने में भारत सहित ब्रिटेन, इटली, चीन और केन्या जैसे देशों से 15,000 लोगों को शामिल किया गया था.
देश में जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचती स्वास्थ सेवा
भारत में सेव द चिल्ड्रन संस्था के प्रमुख थॉमस चंडी ने बताया कि भारत में सरकार की ओर से आम जनता को आधारभूत स्वास्थ्य सेवा दिए जाने की पहल के बावजूद देश में शिशु मृत्यु दर में कोई कमी नहीं हुई है. इस रिपोर्ट में 14 देश शामिल हैं. आंकड़ों के अनुसार हर साल लगभग 2 लाख शिशुओं की मौत जन्म के 24 घंटे के भीतर हो जाती है. यानि हर पन्द्रह सेकेंड पर एक शिशु की मौत हो जाती है.
भारत में शिशु मृत्यु दर सबसे ज्यादा है यानि प्रति 1000 शिशुओं में 72 शिशुओं की मृत्यु हो जाती है, जो पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी ज्यादा है. इतना ही नहीं हर साल देश में पांच साल की उम्र से पहले ही दो लाख बच्चों की मौत हो जाती है. हालांकि सरकार की ओर से स्वास्थ्य संबंधी कई योजनाएं हैं, जिसके लिए फंड है और संसाधन भी हैं. इसके बावजूद ज्यादातर जगहों पर स्वास्थ्य सेवाएं लोगों तक पहुंच नहीं पा रही हैं.
थामस चंडी ने ज़ोर देकर कहा, "देश में जन्मा हर शिशु चाहे उसका जन्म कहीं भी हो चाहे वह जिस वर्ग का हो, दूसरों के जैसे उसे भी जीवित रहने के सारे हक़ और अवसर मिलने चाहिए. हम सभी लोगों का यह नैतिक दायित्व है कि हम इस दिशा में आज से ही कुछ करें."
जनता में जागरूकता की कमी
राजस्थान में अजमेर निवासी तपेदिक की रोगी पच्चीस साल की मेवा ने सेव द चिल्ड्रन संस्था को बताया, "मेरे चार बच्चे थे लेकिन मेरा दूसरा बच्चा जन्म के केवल दो दिनों के बाद ही मर गया. मुझे नहीं मालूम उसे क्या हुआ था. वो बीमार भी नहीं था. मुझे काश मालूम होता कि कौन सी स्वास्थ्य सेवाएं है जिससे मैं अपने बच्चे की जान बचा पाती."
इस रिपोर्ट के लेखक के अनुसार देश में कम पैसों में ऐसे इलाज़ हैं जिससे नवजात शिशुओं के मृत्यु दर में 70 प्रतिशत की कमी की जा सकती है पर लोगों की इलाज के प्रति गलत धारणा है. ग़रीब जनता हमेशा इलाज को महंगा समझती है. लोगों की इलाज के प्रति महंगी अवधारणा को बदला जा सकता है. अगर लोगों को आसानी से मिलने वाले सहज इलाज़ के बारे में सही ज्ञान हो जाए तो इन उपायों से वे आसानी से अपने शिशुओं की जान बचा सकते हैं.
पिछले दशक में देश में आर्थिक दृष्टिकोण से काफी प्रगति हुई जिससे ग़रीब और पिछड़े ग्रामीण इलाकों के सुधार के लिए कई योजनाएं बनी लेकिन ज़रूरतमंदों को इन योज़नाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पाया. देश में आज भी आधी से ज्यादा महिलाओं का प्रसव किसी प्रशिक्षित धाई के बिना होने की वज़ह से कई इंफेक्शन और परेशानियां होती हैं.
दूर-दराज़ गांवों में जहां डॉक्टर ज्यादातर उपलब्ध नहीं होते लोग अपने बच्चों का इलाज अप्रशिक्षित और अनुभवहीन चिकित्सकों से करवाते हैं.
चंडी के अनुसार नवजात शिशुओं की मृत्यु का सबसे प्रमुख कारण ग़रीबी है. इतना ही नहीं कई बार स्थानीय परम्पराएं और अंधविश्वास भी राह में रोड़े अटकाता है. कुछ आदिवासी समुदाय आज भी जन्म के बाद मां को शिशु स्तनपान कराने नहीं देते हैं.
हालांकि टीकाकरण, घर की साफ-सफाई और स्तनपान जैसे विभिन्न प्रोग्रामों में चालीस अरब डॉलर निवेश करने से पहले की अपेक्षा मृत्यु दर में कमी हुई है. इस बारे में भारत की स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए इंटरव्यू में कहा, "स्पष्ट है कि अभी भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. हमें इस दिशा में वर्त्तमान संसाधनों का उपयोग करते हुए ख़ास राज्यों में फोकस करने की आवश्यकता है."
रिपोर्ट: एजेंसियां/सरिता झा
संपादन: महेश झा