श्रीलंका में युद्ध अपराध हुए, पर जांच पर बेबस यूएन
२६ अप्रैल २०११संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा है कि उनके पास पूर्वोत्तर श्रीलंका में 2008-2009 के दौरान हुई लड़ाई में आम लोगों के मारे जाने के मामले की अंतरराष्ट्रीय जांच के आदेश देने का अधिकार नहीं है. बान की तरफ से नियुक्त एक पैनल को सबूत मिले हैं कि लड़ाई के दौरान तमिल विद्रोही संगठन लिट्टे और सरकार, दोनों ही युद्ध अपराधों के दोषी हैं और जो लोग इसमें शामिल रहे, उनके खिलाफ मुकदमा चलना चाहिए.
रिपोर्ट में बान से आग्रह किया गया है कि वह एक अंतरराष्ट्रीय तंत्र कायम करें ताकि 25 साल तक चले संघर्ष की छानबीन की जा सके. लेकिन बान के प्रवक्ता मार्टिन नेसिर्की ने कहा, "अंतरराष्ट्रीय तंत्र कायम करने की सिफारिश पर महासचिव को सलाह दी गई है कि इसके लिए मेजबान देश (श्रीलंका) की सहमति जरूरी है या फिर इस बारे में सदस्य देशों की कोई अंतरसरकारी फोरम फैसला दे सकती है."
जांच के आसार नहीं
इसका मतलब है कि श्रीलंकाई सरकार या फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, संयुक्त राष्ट्र महासभा, मानवाधिकार परिषद या अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्था की रजामंदी के बिना बान आम लोगों की मौतों की छानबीन के लिए कोई औपचारिक जांच शुरू नहीं करा सकते हैं. कोलंबो में संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारियों का कहना है कि सरकार किसी भी सूरत में इस तरह की जांच के लिए सहमति नहीं देगी. श्रीलंका हेग की अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत (आईसीसी) का सदस्य भी नहीं है. ऐसे में, इस अदालत को वहां युद्ध अपराधों की जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के फैसले की जरूरत होगी.
सुरक्षा परिषद के राजनयिकों का कहना है कि इस बात की न के बराबर संभावना है कि परिषद बान को निर्देश देगी कि श्रीलंकाई युद्ध की जांच की जाए. इस मामले को आईसीसी को भी सौंपे जाने की गुंजाइश नहीं दिखती. हो सकता है कि श्रीलंकाई सरकार से राष्ट्रीय स्तर पर ही मामले की जांच के लिए दबाव बनाया जाए. बान ने श्रीलंका सरकार से आग्रह भी किया है कि वह वास्तविक तरीके से छानबीन करे. राजनयिकों का कहना है कि वीटो शक्ति से लैस रूस और चीन के अलावा सुरक्षा परिषद के भारत जैसे अस्थायी सदस्य भी श्रीलंका के मामले में परिषद के हस्तक्षेप का विरोध करेंगे.
श्रीलंका सरकार पर 'दोष'
यूएन पैनल की बहुत सी बातें काफी पहले ही श्रीलंकाई मीडिया में लीक हो चुकी हैं. इसकी एक कॉपी श्रीलंकाई सरकार को भी भेजी जा चुकी है. हालांकि इस रिपोर्ट में आम लोगों की मौतों के लिए दोनों ही पक्षों को जिम्मेदार बताया गया है. लेकिन सरकार ने 2009 में लिट्टे नेतृत्व का सफाया कर दिया. ऐसे में अकेली श्रीलंकाई सरकार पर ही युद्ध अपराधों की जिम्मेदारी आती है. रिपोर्ट में सरकार पर अस्पताल, मानवीय सहायता केंद्रों जैसी जगहों पर बमबारी करने और संकटग्रस्त इलाके से बाहर मौजूद लोगों के मानवाधिकारों के हनन के भी आरोप लगाए गए हैं.
रिपोर्ट कहती है, "लड़ाई के आखिरी दौर में आम लोगों की ज्यादातर मौतें सरकारी बमबारी की वजह से हुईं. सरकार ने अपनी बमबारी के असर को जानते हुए भी यह कदम उठाया." रिपोर्ट कहती हैं कि लड़ाई के दौरान आम लोगों की मौतों को लेकर कोई प्रामाणिक आंकड़े मौजूद नहीं हैं, लेकिन विभिन्न सूत्रों से मिली जानकारी कहती है कि निर्णायक चरण में मरने वाले आम लोगों की संख्या 40,000 तक हो सकती है.
रिपोर्टः एजेंसियां/ए कुमार
संपादनः ओ सिंह