सिंगुर सा दहक रहा है चावलदहल
१६ मार्च २०११स्थानीय लोग इस अधिग्रहण के खिलाफ हैं. लेकिन सरकार और बिजली कंपनी उस जमीन को छोड़ने के मूड में नहीं दिखती. लोग इस प्रयास का विरोध तो कर रहे हैं. लेकिन इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह उन्हें भी नहीं पता.
छत्तीसगढ़ के राजनादगांव जिले के गोंड आदिवासी अपनी पुश्तैनी जमीन बचाने के लिए एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. लैंको इन्फ्राटेक लिमिटेड नामक एक बिजली कंपनी इस जिले के चावलदहल गांव में ढाई सौ मेगावाट क्षमता वाला एक सौर उर्जा संयंत्र लगा रही है. लगभग साढ़े तीन सौ एकड़ में लगने वाले इस संयंत्र के लिए आसपास की डेढ़ सौ एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. उसमें से 20 एकड़ जमीन गोंड आदिवासियों की है.
रोजी रोटी कैसे दें लोग
राज्य सरकार और कंपनी उस जमीन को लेने के लिए हर तरकीब आजमा रही है. लेकिन इस आदिवासी तबके के लोग आखिर वह जमीन कैसे बेच दें? वही उनकी रोजी-रोटी का अकेला जरिया है. एक व्यक्ति ने साढ़े चार लाख में अपनी एक एकड़ जमीन कंपनी को बेच दी है. लेकिन बाकी लोग इसके लिए तैयार नहीं हैं.
आखिर यह संयंत्र किसके लिए बन रहा है? इस सवाल का जवाब परियोजना में अस्थायी तौर पर काम कर रही मंगला देती हैं. वह कहती हैं, "यह शहर के लोगों के लिए बन रहा है. इससे हमारा क्या फायदा. हमें तो बिजली मिलेगी नहीं. यह बिजली शहर में बड़े लोगों को दी जाएगी. हमें तो यहां नौकरी भी नहीं मिलेगी. हमारी जमीन मांग रहे हैं. लेकिन हम नहीं देंगे."
यहां के लोग उस जमीन पर पत्थर तोड़ कर उसे निजी कंपनियों को बेच कर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. बरसात के सीजन में वह पशुओं का चारागाह बन जाती है. वहां काम कर रही लक्ष्मी कहती हैं कि कंपनी यह जमीन ले लेगी तो इसके चारों ओर दीवार खड़ी कर दी जाएगी और फिर लोग मजदूरी के लायक भी नहीं रह जाएंगे.
आवाज कहीं जाती ही नहीं
सरकार और निजी कंपनी की ओर से जमीन अधिग्रहण के प्रयासों के विरोध में लोगों ने पंचायत के पास अर्जी भी दी है. लेकिन इसका कोई असर नहीं हो रहा है. पंचायत प्रमुख गीता वर्मा बताती है कि अर्जी से कोई फायदा होता नहीं नजर आता.
पहले दौर में इस परियोजना में 14 सौ करोड़ रुपए का निवेश किया जाएगा. यह संयंत्र अगले साल शुरू होना है. राज्य सरकार और कंपनी के अधिकारी लगातार परियोजना स्थल पर आकर गोंड आदिवासियों को नौकरी और तमाम दूसरी सुविधाएं मुहैया कराने का लालच देकर जमीन बेचने के लिए राजी करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन गांव वाले किसी भी कीमत पर अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.
हाथी के दांत दिखाने के और
इससे पहले भी अपने जिले में विभिन्न परियोजनाओं के लिए जमीन देने वालों का हश्र लोग देख चुके हैं. उनका कहना है कि जमीन लेने से पहले तो कंपनियां तमाम वादे करती हैं. लेकिन जमीन हाथ में आते ही वह लोगों की ओर से मुंह मोड़ लेती हैं. न तो परियोजना में नौकरी दी जाती है और न ही दूसरी कोई सुविधा. उस इलाके से राजधानी रायपुर की दूरी महज 70 किलोमीटर है. लेकिन सरकार के कानों तक इन आदिवासियों की फरियाद नहीं पहुंची है. जिले में माओवाद का खास असर नहीं है. लेकिन हाल के वर्षों में यहां तेजी से नए उद्योग लग रहे हैं. उनके लिए जमीन की अधिग्रहण का काम भी जोरों पर है. सुनीता कहती हैं कि छत्तीसगढ़ के लोग पहले भी ऐसे वादों के भुलावे में पड़ कर ठगे जा चुके हैं. इसलिए गांव वाले कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं.
अब गांव वालों का यह विरोध कब तक टिकेगा, कहना तो मुश्किल है. लेकिन आदिवासियों ने अभी आस नहीं छोड़ी है.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः वी कुमार